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अन्य भाषायें-मध्ययुगीय भारतीय प्रार्य भाषाओं के क्षेत्र के प्रति 'रिक्त, जैन लेखको ने भारतीय ज्ञान की विविध शाखामों में न केवल संस्कृत प्राकृत मादि मे ही वरन् कई द्रविड भाषानों में भी पर्याप्त योमदान किया है। अनेक प्राच्यविदो द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों मे यथा शब्द शास्त्र, छन्द शास्त्र, काव्य शास्त्र, व्याकरण, राजनीति, न्याय, चिकित्साशास्त्र, गणित, ज्योतिष प्रादि मे तद्विषयक जैन ग्रन्थों का अध्ययन भी किया जाने लगा है, किन्तु ये अध्ययन प्राय. करके संस्कृत साहित्य तक ही सीमित है।
इस सम्बध में विचार करने के लिए जैन साहित्य को ही अध्ययन की इकाई मानकर चलना अधिक सुविधा जनक होगा, यद्यपि जैन ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि जैन विद्वानो की विविध विषयक साहित्यिक साधना भारतीय साहित्य की अन्य धाराओं से सर्वथा पृथक कभी नही रही । पूज्यपाद पातञ्जलि के महाभाष्य मे पूर्णतया निष्णात थे, अकलक ने अपने पूर्ववर्ती बौद्ध नैयायिकों की कृतियो का गभीर अध्ययन किया और उनका सयुक्तिक खडन एव आलोचना की । हरिभद्र ने तो दिङनाग के न्याय प्रवेश पर टीका भी लिखी। रविकीति एव जिन सेन जैसे कवि पुगव कालिदास और भारवि की कृतियो से भली प्रकार परिचित थे और उनमे आदर भाव रखते थे। सिद्धचन्द्र और चारित्रवर्धन जैसे ग्रन्थकारो ने बाण तथा माघ के ग्रन्थो की टीकाएं लिखीं। डा. हर्टल के कथनानुसार पचतत्र जैसे सर्व प्रसिद्ध ग्रन्थ के जितने सस्करण यूरोप आदि विभिन्न भारतेतर देशों में पह चे वे सब ही जैन विद्वानो द्वारा किये गये मूल ग्रन्थ के सद्धित, परिवद्धित अथवा परिवर्तित रूप थे, तथा जैन 'शुक सप्तति' ही एक मात्र ऐसी भारतीय रचना है जो अपने मूल रूप मे ही सम्पूर्ण जैसी की तैसी भारत के बाहर सुदूर देशों मे पहुची और प्रचार को प्राप्त हुई। अतएवर्ष भारतव के सम्पूर्ण साहित्यिक जाल के रूप एव विकास को पूर्णतया समझने के लिए जैन साहित्य का अध्ययन परमावश्यक है।
जैन विद्वानो ने अपनी साहित्य साधना प्राय, साथ ही साथ प्राकृत, सस्कृत, अपभ्र श, तामिल तथा कन्नडी भाषामो मे की। कितने ही जैन ग्रन्थ