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कलकत्ता विश्वविद्यालय के डा० सातकोडी मुखर्जी ने जैन दर्शन पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ-दी फिलासफी माफ नान एबसोल्यूटिज्म, लिखा है। समन्तभद्र, पूज्यपाद . अकलक, विद्यानंद आदि प्राचार्यों के समय एवं इतिहास के सम्बध में हमारे भी कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इस समग्र नव प्रकाशित साहित्य से जो सामग्री प्रकाश में पा रही है वह मध्यकालीन भारतीय न्याय दर्शन के सम्बध में पूर्वनिर्धारित धारणामो मे भारी क्रान्ति करने वाली हैं। पूर्वपक्ष के प्रतिपादन में ये जैन ग्रन्थ उल्लेखनीय निष्पक्षता प्रदर्शित करते हैं और विन्टरनिट्स के कथनानुसार, उनके दार्शनिक विवेचन अन्य भारतीय दर्शनो का अध्ययन करने में अत्यन्त मूल्यवान सिद्ध होते है।
तत्त्वज्ञान, न्याय, धर्म शास्त्र आदि के अतिरिक्त जैनों का काव्य, नाटक, चम्पू, कथा माहित्य, अलकार, छद, गब्द शास्त्र, गणित, ज्योतिष, चिकित्सा शास्त्र, राजनीति, इतिहास आदि विभिन्न भाषामय विविध विषयक साहित्य भी पर्याप्त विशाल काय एवं महत्त्वपूर्ण है । तत्तद विषयों से सम्बधित अखिल भारतीय साहित्य के विकास एवं इतिहास का ज्ञान बिना उन विषयो के जैन" साहित्य के समुचित अध्ययन एव उपयोग के अधूरा ही रहेगा। किन्तु खेद है कि इस विशाल जैन साहित्य के न्यूनॉश का भी अभी प्रकाशन अथवा सदुपयोग नही हो पाया है।
हस्त लिखित प्रतिया-भारतवर्ष के अनगिनत जैन शास्त्र भडारो मे सगृहीत पुरातन ग्रन्थो की हस्तलिलित प्रतियॉ देश की अमूल्य निधि हैं। ये ऐसी वस्तु है जिनकी कि एक बार पूर्णतया नष्ट हो जाने पर पूत्ति कर लेना असभव है । परवर्ती साहित्यगत उद्धरणो, उल्लेखो अथवा निर्दशो पर से ऐसे अनेक ग्रन्थो का पता चलता है जिनकी एक भी प्रति कही भी उपलब्ध नही है । साहित्यिक इतिहासकारो के लिए हस्तलिखित प्रतियाँ अनुमानातीत महत्त्व रखती हैं । उत्सर तथा कक्षिण दोनो ही प्रदेशो के जैन ग्रन्थकारों ने अपनी रचनायो को केवल धार्मिक विषयो तक ही सीमित नही रक्खा, वरतू. अपनी कृतियो से भारतीय ज्ञान की सभी विविध भाषामो को सुसमृद्ध किया।