________________
(८५)
पुराभिलेखों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन करने से, न केवल नवीन तथ्य प्रकाश मे आयेगे वरन सुपरिचित घटनाग्रो तथा अन्य ऐतिहासिक तथ्यों का परस्पर सम्बध भी स्थापित किया जा सकेगा और कालानुक्रमिक अध्ययन में महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होगे । इस प्रकार के पृथक २ विभिन्न सूचनांशो का परस्पर सबध बैठाने से ही, ग्रन्थराज श्रीधवल की एक मात्र उपलब्ध मूलप्रति के लेखन काल का निर्णय किया जा सका और मल्लिभूपाल को चीन्हा जा सका । आज यह विषय एक भाग्यानुसारी क्रीडा हो रही है, किन्तु इसमे से यह सयोगतत्व, गिरनाट की 'रिपर्टरी डी एपिग्रैफी जैना' नामक ग्रन्थ के आदर्श पर, इन सर्व साधनो से सबधित नामादि अनुक्रमणिकाये निर्माण करके निकाल दिया जा सकता है । प्रशस्तियो और अभिलेखो से जो समय सबधी सामग्री प्राप्त होती है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कभी-कभी तो ये तिथिये इतनी सुनिश्चित पाई जाती है, कि व्हिटने का बहुधा उद्ध त कथन, कि “भारतीय साहित्य के इतिहास की तिथियाँ ऐसे पूर्वापर असम्बद्ध तथा पृथक २ स्थापित सकेत चिन्ह है जो पुन विचारनीय एवं चिन्ननीय हैं"--सन् १८७६ मे भले ही सत्य रहा हो, किन्तु अप वह अनेक अपवादो के माथ ही ग्रहण किया जा सकता है।
पुराभिलेख-राइस, नरमिहाचार्य, गिरनाट, आय गर, शेशागिरि राव, सालतोर तथा अन्य विद्वानो ने उन जैन पुराभिलेखो का उपयोग सफलतापूर्वक किया है जो जैन धर्म के इतिहास के विविध अगो पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं और बहुवा तत्कालीन नरेशो, राजपुरुषो तथा अन्य राजनैतिक बातो का भी उल्लेख करते है । जैन मूर्नियो तथा मदिरादिको पर अंकित अभिलेख जिनमे से कितने ही बुद्धिसागर, जिन विजय जी, नाहर, कामता प्रसाद, कान्तिसागर, गोविन्द प्रसाद आदि विद्वानो द्वारा प्रकाश मे लाये जा चुके है, साहित्यिक एव ऐतिहासिक कालानुक्रम का निर्णय करने में बहुत उपयोगी है, क्योकि उनमे प्रमुख प्राचार्यों का जोकि बहुधा ग्रन्थकार भी होते थे, प्राय उल्लेख रहता है। 'एपिग्राफिका कर्नाटिका' मे सकलित जैन अभिलेख, कर्णाटक प्रात के इतिहास मे