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कार तो अपने पापको 'उभय भाषा कधि चक्रवर्ती प्रादि विशेषणो से सूचित करने में गोरख मानते थे । उक्त विभिन्न भाषामो मे उपलब्ध न रचनाएँ इतनी परस्पर सम्बद्ध हैं कि एक ही नाम तथा एक ही प्रतिपाद्य विभव के अन्य विभिन्न कालो मे विभिम भाषामों में उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ जयराम ने प्राकृत में धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना की। उसी के आधार पर सन् १८८ ई. में हरिषेण ने चित्तौड़ मे अपभ्रश से धर्म परीक्षा लिखी। सन् १०१४ मे उज्जैन निवासी अमितगति ने सस्कृत मे उसी अन्य की रचना की और १२ वीं शताब्दी मध्य के लगभग कर्णाटक निवासी वृत्तिविलास ने कन्नडी भाषा में की। इस प्रकार विभिन्न ग्रथो में अन्तर्भूत अन्तर्भाष यिक एव अन्तन्तिीय प्रभावों को लक्ष्य करने से भारतीय साहित्य का जो डाचा हमारे समक्ष है उसमे अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यो की अवश्य ही वृद्धि होगी। ऐसा तुलनात्मक अध्ययन पूर्वापर तथा रचना तिथि आदि बातो के निर्णय मे भी महत्त्व पूर्ण सिद्ध होगा।
सस्कृत एव प्राकृत के अतिरिक्त अन्य भाषामो मे रचे गये जैन साहित्य का बहुत कुछ आभास भार० नरसिहाचार्य कृत 'कर्णाटक कवि परिते' या उसके प्रेमी जी कृत अनुवाद 'कर्णाटक के कवि, श्रीयुत देसाई कृत 'गुर्जर कवियो-२ भाग; प्रोफेसर चक्रवर्ती का तामिल जैन साहित्य, प्रेमी जा व बा० कामता प्रसाद के हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास, हमारा 'हिन्दी का पुरातन गद्य साहित्य' और राजस्थानी जैन साहित्य के सम्बन्ध मे श्री अगरचन्द नाहटा के लेखो से हो सकता है।
बहु विषयक बहुभाषयिक होने के साथ ही जैन साहित्य बहुविषयिक भी है और नैयायिक अग तो अत्यन्त समृद्ध एवं महत्त्वपूर्ण है। किन्तु भारतीय साहित्य की न्याय विषयक शाखा ने प्राच्य विक्षों का ध्यान अपनी ओर अभी कम ही आकर्षित कर पाया है । जैन नैयायिक साहित्य सो प्राय. स्पर्श ही नही किया गया, यद्यपि लगातार अनेक शताब्दियो से प्रकांड जैन नैयायिक जैन धर्म के सिद्धान्तों का अन्य भारतीय विचारधाराओं