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प्रायः सर्व प्राचीन विशुद्ध भारतीय संस्कृति है । प्रत भारतीय संस्कृति का समुfat मूल्यांकन करने के लिए और आधुनिक भारत के ही नहीं वरन विश्व के भी सांस्कृतिक विकास में उससे पूरा पूरा लाभ उठाने के लिए यह प्रत्यन्तं आवश्यक है कि जैन श्रमण संस्कृति के विविध अ गो का विशद एव गभीर अध्ययन किया जाय । वैसे तो १५ वी शताब्दी ई० की अतिम पाद में सर विलियम जोन्स से प्रारंभ करके अनेक पाश्चात्य विद्वानो द्वारा भारतीय साहि त्य, कला, पुरातत्त्व तथा अन्य साँस्कृतिक विषयों का अध्ययन प्रारंभ हो गया था । १६ वी शताब्दी के उत्तराधं मे अनेक उद्घट भारतीय विद्वान भी उक्त कार्य में सक्रिय सहयोग देने लगे थे, और सौ वर्ष के उपरात तो इस क्षेत्र में भारतीय विद्वानों का ही प्राय एकाधिकार हो गया है । इन पाश्चात्य एवं पूर्वीय विद्वानों ने अपने उपरोक्त अध्ययन के दौरान मे प्रसंगवश जब तब जैनधर्म, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, कला, पुरातत्त्व, प्रच्यतत्त्व आदि का भी अल्पाधिक अध्ययन एव खोज शोध की और अपने महत्त्वपूर्ण गवेषणात्मक विवेचनो के द्वारा जैनाध्ययन को प्रगति प्रदान की । तथापि भारतीय अथवा विदेशी प्राच्यविदो का ध्यान अनेक कारणो से अभी तक भी उसकी भोर इतना आकृष्ट नही हो पाया जितना कि होना चाहिये था ।
सास्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से जन धर्म, सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान, दर्शन और सामाजिक आचार विचार एव पर्व आदि के अतिरिक्त वर्तमान भारत को प्रदत्त जैन संस्कृति की स्थूल पुरातन भेटे निम्नप्रकार है --- विविध भाषामय तथा विविध विषयक विपुल जैन साहित्य, जैन ग्रन्थो की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ, जैन चित्र कला, जैन मूर्त्तकला, जनस्थापत्य और शिलाखडो, प्रतिमा, ताम्रपत्रो आदि पर अकित जैन पुराभिलेख, इत्यादि ।
जैन ग्रहस्थ के देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, सयम, तप एव दान रूप दैनिक छह श्रावश्यक कार्यों मे दान देना उनका एक महत्त्वपूर्ण एव श्रावश्यक कर्त्तव्य है । शास्त्र, अभय, आहार एवं औषधिरूप चतुविष दान प्रणाली में शास्त्रदान का स्थान बहुत ऊंचा है । अत. शास्त्र दान सबधी इस धार्मिक
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