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शनों की पाया है। पाटन के हम चमाचार्य ज्ञान संदिर' में हक लिखित प्रतियों में स्थानीय संग्रहों को सुरक्षित एवं व्यवस्थित करने का को स्कुत्य कार्य किया वह अन्य स्थानों के लिये भी अनुकरणीय है और वह उपरोसा प्रयर के संस्करण प्रकाशन के लिये आवश्यक अन्वेषल कार्य के लिये उपयोगी सिव होगा। समग्न मागम ग्रन्थों के ऐसे प्रमाणिक सम्पादन मै वर्षमागणी कोष,' 'पाइयसह महाष्णव' मादि वर्तमान कोष ग्रंथों की कभी पूत्ति हो जायनी । ऐसे जैन पारिभाषिक शब्दों या पदों का जिन के कि अर्थों का तारतम्म जैन साहित्य के विभिन्न स्तरों में अध्ययन किया जा सके, कोई भी प्रमाणीक संकलन अभी तक नहीं बन पाया है । सुप्राली और जैकोबी ने ऐसे एक प्राकृत कोष के निर्माण करने के प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया था, किन्तु उसका कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। इधर वीर सेवा मदिर देहली में भी एक ऐसे ही पारिभाषिक जैन शब्द कोष 'जैन लक्षणा वलि' का निर्माण कई वर्षों से हो रहा है।
हरिभद्र सूरि की 'समराइच्च कहा प्राकृत अथवा जन महाराष्ट्री कथा साहित्य का सुन्वर व श्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करती है, किन्तु उसकी पूर्ववती 'कुवलय माला कहा' तथा उत्तरवर्ती 'वलासवई कहा' अभी तक संभवतया अप्रकाशित
प्राकृत साहित्य का वह थिमिक स्तर जो दिगम्बर जैनो द्वारा मान्य एवं अत्यन्त पवित्र समझा जाता है, शिवार्य की भगवती आराधना, कुन्द कुन्द के पाहुई अन्य; बट्टे कर ' कृत मूलाचार प्रादि विक्रम की प्रथम शताब्दी के ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। ऐसा विश्वास था और जो सत्य ही सिद्ध हुआ, 'कि इनसे भी अधिक प्राचीनतर पाठ षट्खडागमादि दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थो की धवल जयघवल प्रादि विशाल टीकाओं में जडे पड़े हैं। इन महान ग्रंथो के (१) ऐसा विश्वासले के भी कारण है कि यह कुन्द कुन्द का ही श्रप
लाम था, देखिये औका खेटीबोरी भा० कि० (२) जै० ए०, भा०६ पृ० ७५-८१, डा. हीरालाल का लेख।
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