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रगों की पाठगत विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । १ डा० उपाध्याय ने सिद्ध किया कि गोमट्टसार की संस्कृत 'जीवतत्त्व प्रदीपिका' टीका के कर्तव्य का श्रेय जो केशववर्णी को दिया जाता रहा है वह भ्रम पूर्ण है, और उसके वास्तविक कर्त्ता १६ वी शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिण कनारा के राजा सालुव मल्लिराय के समकालीन कोई नेमिचन्द्र थे । २ इन उद्धरणो की जाँच बहुधा उक्त टीका श्रो की समयावधि निर्धारित करने मे भी सहायक होती है जैसा कि डा० उपाध्याय ने मुलाचार की वसुनन्दिवृत्ति पर से 3 तथा श्री गोडे ने मलयगिरि की तिथि के सम्बन्ध मे दिखाने का प्रयत्नकिया है। गतदर्शक में प्रकाशित कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो की प्रस्तावनाओ मे प० महेन्द्र कुमार, प० कैलाश चन्द्र, प० जुगलकिशोर मुख्तार, प० दरबारी लाल कोठिया आदि ने तथा अपने फुटकर लेखो के रूप मे कई अन्य विद्वानो ने भी इस प्रकार की सामग्री का विश्लेषण एव उपयोग किया है ।
अपभ्रंश -- भाषा और साहित्य का अध्ययन प्राच्य विद्या का एक नवीन क्षेत्र है । जैकोबी, दलाल, गुणे, शहीदुल्ला, गाधी, वैद्य, उपाध्ये, हीरालाल एल्सफोर्ड आदि विद्वानो ने अनेक मूल्यवान अपभ्रंश ग्रथो का सम्पादन किया है तथा इस भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध मे महत्त्व पूर्ण विवेचन किये है। डा० पी० एल० वैद्य ने पुष्पदत्त के महापुराण का विद्वतापूर्ण सम्पादन किया । महापति राहुल सांकृत्यायन ने महाकवि स्वयंभू की रामायण पर अभूत पूर्व प्रकाश डाला । प्रेमी जी ने भी इन प्रारम्भिक जैन अपभ्रंश कवियो के सम्बन्ध मे ज्ञातव्य सूचनाएं दी । डा० उपाध्ये ने जोइन्दु के परमात्म प्रकाश का और प्रो० हीरालाल ने भी कई अपभ्रंश ग्रथो का सम्पादन किया है । प० परमा-"
(१) एनल्स भा० ओ० २ि० इ०, २०, पृ० १८८ फुटनोट
(२) इपि० कर्ण, ७, १,
नो०
(३) बूल्नर कमेमोरेशन वाल्यूम, लाहौर १६४० पृ० २५७ फु० (४) जै० ए०, भा० ५, पृ० १३३ फु० नो