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विज्ञान, जैन साधु वर्ग की सदैव से चली बाई ज्ञान पिपासा seत जीवता पौर साहित्यिक अभिरुचि तथा घनी श्रावक की उदारता पूर्ण सहायता सद्योग एव श्रुतभक्ति के कारण आज भी भारतवर्ष के विभिन्न मानों में ऐसे अनेक जैन ग्रन्थ भडार विद्यमान हैं जो अपने प्राचीन प्रमाणीक महत्त्वपूर्ण अंश समझे जाने योग्य हैं ।
प्राकृत - प्राचीन भारतीय सस्कृति की अनेक विधि धाराओ का महत्व भली भांति समझने के लिए संस्कृत और प्राकृत, दोनो ही साहित्य का साथ साथ अध्ययन करने की आवश्यकता है । पभिलेखीय प्राचार स्पष्टतया सूचित करते है कि सर्व साधारण मे भावव्यजना के लिये प्राकृत भाषायें प्रत्यधिक लोकप्रिय थी । उत्तर तथा दक्षिण दोनो ही प्रदेशों मे प्राचीनतम काल से राजकीय प्रदेश तथा व्यक्तिगत लेखादि प्राकृत मे ही लिखे मिलते | संस्कृत नाटको मे स्त्री आदि पात्रों के द्वारा प्राकृत का बहुत प्रयोग इस बात को प्रभागित करता है कि एक समय था जबकि प्राकृत भाषाएँ ही लोक प्रिय तथा साधारण बोल चाल की भाषाएँ थी । वस्तुत कई एक महिला कवित्रियो ने प्राकृत में ही काव्य रचना की है। * इसमे भी सन्देह नहीं है कि जैन धार्मिक एव लौकिक गद्य पद्यात्मक प्राकृत साहित्य का सिलसिला अति प्राचीन काल से मध्य युग पर्यन्त अविच्छिन्न रूप से चला आया है, और यदि इस प्राकृत जैन साहित्य को सम्पूर्ण प्राकृत साहित्य में से निकाल दिया जाय तो अवशेष
नगण्य रह जाय ।
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किन्तु यद्यपि प्राय समस्त श्वेताम्बर जैन अर्धमागधी प्रागमग्रन्थ अ शत. arrar पूर्णत एकाधिक सस्करणों में प्रकाशित हो चुके हैं, तथापि, मूल पाठों के समालोचनात्मक दृष्टि से सुसम्पादित संस्करण बहुत ही थोडे हैं । निर्यु - क्तियों एव चूरिगयो सहित इस समस्त अर्धमागधी साहित्य के ऐसे एक रस
*प्रो० जे० बी० चौधरी, कृव 'संस्कृत कवित्रियों' भ्रा० २८. कपूर जी नाटक का प्रथम अभिनय भी विदुषीरत्न अवन्ति सुन्दरी की प्रेरणा पर ही हुआ था ।