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ही है और उनमे भी कन्नडी, तामिल, तेलगू, मलयासम प्रादि भाषाओं में प्रका. शित जैन पुस्तको का समावेश नहीं है। दो ढाई हजार के लगभग पुस्तकें श्वेताम्बर तथा स्थानकबासी प्रादि अन्य जैन सम्प्रदायों द्वारा भी प्रकाशित हो चुकी है।
अस्तु डा० माता प्रसाद गुप्त की पूर्वोल्लिखित 'हिन्दी पुस्तक साहित्य' में दी हुई लगभग ५५०० पुस्तको और लगभग ४५०० लेखको के प्राय. बराबर ही समन मुद्रित प्रकाशित जैन पुस्तक साहित्य और उसके निर्माता आदि हैं। यदि केवल हिन्दी जैन पुस्तको को ही लिया जाय तो वे भी समग्र हिन्दी पुस्तकों के दो तिहाई से अधिक अवश्य हैं, और भाषा, शैली, विषय महत्त्व और लोकोपयोगिता की दृष्टि से भी सामान्यत उनकी अपेक्षा निम्नकोटि की नही है।
माराश यह है कि स्वतन्त्र भारतीय राष्ट्र, भारत के सास्कृतिक विकास और साहित्यिक प्रगति के लिये यह परम आवश्यक है कि देश के साहित्यिक और विद्वान जैन साहित्य को भी ममग्न भारतीय साहित्य का अभिन्न अविभाज्य अङ्ग मानकर निष्पक्ष एव महृदय दृष्टि से ज्ञान की विविध शाखामो मे उसका अध्ययन मनन और उपयोग करे । उनकी दृष्टि मे वह उपनिषद जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक, पाणिनी और पूज्यपाद, पातज्जलि अश्वघोष व्यास और कुन्द कुन्द व समन्तभद्र, चरक सुश्रुत उग्रादित्य मोर नागार्जुन, शकर धर्मकीति और अकलक, कालिदास और जिनसेन, योगीन्दु सरहपा कबीर और दादू, तुलसीदास और बनारसीदास इत्यादि महापुरुषों और उनके विचारो एव रचनामों का समान महत्त्व होना चाहिये । बिना किसी भेद भाव के इन सभी महान पूर्व पुरुषो का सम्मान एवं अध्ययन ज्ञान के सर्वतोमुखी विकास, राष्ट्र की एक सूत्रता तथा देश और समाज के कल्याण का प्रमोघ साधन है, इसमें कुछ भी सन्देह नही।
जैनाध्ययन का महत्त्व प्रौर प्रगति श्रमण सस्कृति की प्रधान धारा जैन सस्कृति सदर प्रतीत से चली आई