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raarata faषय बनाकर उसके सम्बध मे सुव्यवस्थित शोध खोज अनुसंधानादि चालू किये कराये जाये ।
अजैन लेखकी की उपरोक्त प्रकार की भ्रान्त धारणाओं और मिथ्या वा अन्यथा कथनों के परिहार एवं निराकरण के उद्देश्य से भी बहुत कुछ साहित्य प्रकाशित होने लगा है, किन्तु इस आवश्यकता की पूर्ति जैसे सुचारु सुव्यवस्थित ढंग पर होनी चाहिये थी वैसी श्रभी नही हो पारही है ।
जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायो के बीच समन्वय तया ऐक्य के जो प्रयत्न पिछले युग में प्रारभ हुए थे वे इस युग मे शिथिल प्राय होते गये । और जिस प्रकार भारतीय राजनैतिक क्ष ेत्र मे हिन्दू मुस्लिम ऐक्य के प्रयत्नी का परिणाम प्रतिकटु एव विनाशकारी सिद्ध हुआ उसी प्रकार दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदायों मे सद्भाव एव एक सूत्रीकरण के प्रयत्न भी उभय सम्प्रदायो के बीच की खाई को और अधिक विस्तृत एव गहरी करते दीख पड़ रहे है । विभिन्न तीर्थों के प्रश्न को लेकर होने वाली चिरकालीन मुकदमेबाजी के प्रतिरिक्त नवीन साहित्यिक शोध खोज का लाभ उठा कर दोनो ओर के कितने ही विद्वान प्रत्यक्ष प्रथवा परोक्ष रूप से उभय सम्प्रदायो के साहित्यिक सैद्धान्तिक ऐतिहासिक आदि मतभेदो को और अधिक सूक्ष्मता के साथ पुष्ट करने लगे हैं । जो इने गिने नेता इतने पर भी समन्वय के प्रयत्न में लगे हुए है वे भी कुछ ऐसा भ्रमपूर्ण ढग प्रत्यार किये हुए हैं कि जिससे वे सद्भाव उत्पन्न करने के बजोग शंका और द्व ेष की पुष्टि करने मे ही सफल हो रहे हैं । तथापि ऐसे उदाराशय विद्वानो का भी अब प्रभाव नही है जो कि अपनी दृष्टि की विशालता के कारण अनेकान्त मूलक सहिष्णुता के साथ सभी मतभेदो को गौण करतें हैं तथा एक उपरिम समस्तर से ही विचार करते हैं। इस दिशा में ऐसे ही महानुभावों से कुछ आता है ।
सामाजिक संगठन की दृष्टि से भी जैन समाज कुछ आगे नहीं बढ़ा । पिछले युग के नेता सख्या में तो थोडे थे किन्तु प्रायः सर्व ही सामाजिक क्षेत्रों पैर उनका अधिकार था, उनमें परस्पर सहयोगं और एक सूत्रता थी, वे अपना