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(५३) बैनीलाल जैनी देवबन्द, ज्ञानचन्द्र जैनी लाहौर, न्यामत सिंह जैनी हिसार, ना. जौहरीमम सर्राफ देहली (विशेष रूप से उत्कट समाज सुधार विषय के साहित्य के लिये), सेठ हीराचन्द व सखाराम नेमचन्द दोशी शोलापुर, सेक गाधी नाथारम प्राकलूज, गोपाल अम्बादास चवरे कारंजा-इन तीनों भीमानो ने प्राचीन ग्रन्थो के प्रकाशन मे भारी हिस्सा लिया । इनके अतिरिक्त जयपुर निवासी बा० दुलीचन्द श्रावक, मु. ममनसिह, मु. सुमेरचन्द, बैरि० चम्पवराय, कुमार देवेन्द्रप्रसाद, ला० देवीसहाय (फीरोजपुर) उम्मेदसिंह मुसद्दीलाल (अमृतसर) बुद्धिलाल श्रावक, मु. नाथूराम लमेचू आदि उल्लेखनीय है । मद्रास में सी० मल्लिनाथ, प्रो. चक्रवर्ती प्रादि सज्जनो ने जैन साहित्य प्रकाशन का कार्य किया ।
३. वर्तमान युग :-सन् १९२५ के उपरान्त जैन साहित्य प्रकाशन के वर्तमान युग का प्रारम्भ होता है ।
अब विभिन्न मतो के द्वारा धार्मिक दृष्टि से किये जानेवाले विषपूर्ण खडन मडनो का समय नहीं रह गया था। मार्य जैन द्वन्द प्राय समाप्त हो गया था। किसी भी धर्म के मन्तव्यो एव मान्यतामों का मखौल उड़ाने, उसे तुच्छ, नीचा, नास्तिक या मिथ्या सिद्ध करने के प्रयत्न निन्दनीय समझे जाने लगे और सर्वधर्म समभाव स्थापित करने की चेष्टाएं की जाने लगी । किंतु साथ ही एक नवीन प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होने लगी । अनेक बनेतर विद्वान अपनी साहित्यिक, दार्शनिक एव ऐतिहासिक रचनामों में जैन धर्म दर्शन, सस्कृति, मादि की प्राचीनता, इतिहास और मूल्यवान देनों की प्रज्ञान अथवा प्रमाद के वक्ष होकर उपेक्षा तथा उनके सम्बन्ध मे भ्रमपूर्स एव मिथ्या कवन भी करने लगे । फलस्वरूप उन विद्यामो के साथ तो अन्याय होता ही है साथ ही जैन धर्मावलम्बियों के स्वाभिमान को भी ठेस पहुंचती है और उन्हें क्षोभ होता है। स्वातश्य प्राप्ति और सर्वतंत्र जनतन्त्र की स्थापना के उपरान्त बहुसंख्यक हिन्दू धर्मानुयायियो के द्वारा जिनका कि राजनैतिक प्रादि क्षेत्रो में बाहुल्य है , यह प्रवृत्ति और अधिक चरितार्ष