________________
( ५४ ) होने लगी। राष्ट्रीयता के नाम पर जैन धर्म और संस्कृति को स्वतन्त्र सत्ता का निषेध किया जाने लगा है और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति द्वारा केवल अल्प सख्यक होने के कारण ही जैन धर्म और सस्कृति को हड़प लिये जाने की नवीन चेप्टाए प्रारम्भ हो रही हैं । किंतु जिन अर्थों में एक सामान्य हिन्दू विशुद्ध भारतीय है उन्ही अर्थों में एक जैनी भी वैसा ही विशुद्ध भारतीय है। हिन्दू धर्म के नाम से अभिप्रेत वैदिक परम्परा के जिन अनेक सम्प्रदायो
और मत मतान्तरो का समुदाय जितना प्राचीन और भारत का अपना है उमसे शायद कही अधिक प्राचीन और भारत की अपनी ही श्रमण परम्परा का प्रतिनिधि जैन धर्म और उसकी सस्कृति है । ये धार्मिक अथवा सास्कृतिक भेद किसी व्यक्ति की राष्ट्रीयता, नागरिकता अथवा भारतीयता मे बाधक नही हो सकते । फिर ऐसे विवादास्पद शब्द (अर्थात् हिन्दू) का इतना मोह क्यो जबकि वह एक परम्परा विशेष के अनुयायियो के लिये ही प्रयुक्त होते चले आने के कारण समग्र राष्ट्र का सूचक होने के लिए उपयुक्त नही है और जिसके उक्त रूप मे प्रयोग करने से सदैव भारी भ्रान्ति उत्पन्न होते रहने की सभावना है । जब जैन धर्म और सस्कृति की पृथक एवं स्वतत्र सत्ता है, उसकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन है, उसका अपना अति स्वर्णिम इतिहास है और वह शुद्ध स्वदेशीय हैं तब उनके अपने आपको हिन्दू न कहने से या हिन्दूधर्म और सस्कृति का अग न मानने से तो कोई वे विदेशी, प्रभारतीय, राष्ट्र के प्रतिविद्रोही या उसके लिए अजनबी हो नही जाते। वे भारत के हैं और भारत उनका है यह तथ्य निर्विवाद है । जहाँ तक जैनाध्ययन के जिसमे कि, जैन सस्कृति की सभी विविध शाखाप्रो के अध्ययन का समावेश है, महत्त्व और प्रगति का बहुत कुछ अनुमान इमी पुस्तक के अन्त में प्रकाशित म्वतत्र लेख से हो सकता है । जैन ही नही अनेक उद्भट अजैन विद्वान भी अब सहृदय एव शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से जैनाध्ययन में दिलचस्पी ले रहे हैं और भारत के सांस्कृतिक विकास का पुननिर्माण कर रहे हैं। किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न विश्वविद्यालयो मे जैनाध्ययन को एक विशेष