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रण को प्राकृष्ट किया। जैन मित्र मादि कई पत्रों का योग्यता पूर्वक सम्पादन किया' तथा अनेक व्यक्तियों को प्रोत्साहन दे देकर अच्छा खासा लेखक बना दिया। स्वय अकेले उन्होंने सर्व प्रकार की, मौलिक, टीका अनुवादादि, सकलन सग्रह, फुट कर लेख निबन्ध, धार्मिक, ऐतिहासिक, शिक्षा एवं समाज सुधार विषयक छोटी बड़ी रचनाएँ संख्या एव मात्रा में निर्माण की और छपा कर प्रकाशित करदी उतनी शायद छापे के प्रारम्भ से आज पर्यन्त कोई दूसरा व्यक्ति नही कर पाया। ब्रह्मचारी जी के जीवन का प्रत्येक क्षण जैन धर्म
और साहित्य के प्रकाशन प्रचार मे ही व्यीतत हुआ। रेल मे यात्रा करते हुए तथा रोग की दशा मे भी वे लिखते रहते थे। विधवा विवाह के प्रचार के लिये उन्होने 'सनातन जैन समाज' तथा 'सनातन जैन' पत्र की स्थापना की। मध्य काल के एक जैन संत तारण स्वामी द्वारा प्रस्थापित तारण समाज और उसके पुरातन साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय भी ब्रह्मचारी जी को ही है। साथ ही वे उत्कट देश भक्त भी थे और काग्रेस के प्राय. सब ही अधिवेशनो मे सम्मिलित हुए। जैन समाज मे वे निरन्तर देशभक्ति की भावना को फू कते रहते थे।
तत्कालीन नेताओ ने शिक्षा प्रचार की ओर भी विशेष ध्यान दिया । बाल और कन्या पाठशालाएं तो स्थान स्थान मे खुलनी प्रारभ हो गई थी अब बड़ेबड़े जैन सस्कृत विद्यालय भी खुलने लगे। बनारस, इन्दौर, सहारनपुर, कारजा, सागर, मुरैना, मथुरा आदि स्थानो मे ये विद्यालय स्थापित किये गये। पं० गोपाल दास जी बरैया की कृपा से जैन सिद्धात एव दर्शन के परिज्ञाता सस्कृतज्ञ युवक विद्वानों का एक अच्छा दल तैयार हो गया था। अतएव उन विद्यालयो के लिये योग्य अध्यापको की कमी न रही। समाज के श्रीमानो और सेठों ने द्रव्य से सहायता की। इन विद्यानवो मे जैन दर्शन, न्याय, सिद्धात, साहित्य आदि के अतिरिक्त कलकत्ता विश्वविद्यालय तथा क्वीन्स संस्कृत कालिज बनारस की परिक्षाओं के लिए भी विद्यार्थी तैयार किये जाने लगे। दि. जैन महासभा ने जैनशास्त्री आदि परिक्षामो के निमित्त अपना एक परीक्षा