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एशियाटिक सोसाइटी तथा थियोसोफिकल सोसाइटी के भी सदस्य थे। कई देशीय भाषामो पर इनका अधिकार था किन्तु हिन्दी के ये बड़े प्रेमी थे और नागरी के प्रचार मे सदैव प्रयत्नशील रहते थे। आपने हिन्दी के कई समाचारपत्र निकाले जिनमें सर्वप्रसिद्ध 'समालोचक' था जिसे आपने बड़े परिश्रम पोर अर्थ व्यय से चार वर्ष तक निकाला। इस पत्र मे बडे मार्के के लेख निकलते थे । इसके कारण हिन्दी ससार मे आपकी बडी ख्याति हुई । नागरी प्रचारिणी सभा के बडे सहायक थे और जयपुर मे एक 'नागरी भवन' नामक श्रेष्ठ पुस्तकालय स्थापित किया। कमल मोहिनी भंवरसिंह नाटक, व्याख्यान प्रबोधक
और ज्ञान वर्णमाला, ये तीन पुस्तक उन्होंने स्वय लिखी थी तथा 'सस्कृत कवि पचक' प्रादि हिन्दी के कई अच्छे प्रथ इन्होने अपने ही खर्चे से प्रकाशन कराये थे। ___इस प्रकार, जैन साहित्य प्रकाशन के इस प्रथम युग में भी जैन समाज ने सर्वतोमुखी योग दान किया ।
२. प्रगति युग ( सन् १६००---१९२५ ई० ):'पच्चीस वर्ष का यह काल जैन प्रकाशन का प्रगति युग कहा जा सकता है। इस युग मे अन्य मतो के खडन मडन का कार्य, जैसा कि ऊपर सकेत किया जा चुका है, सीमित, संकुचित एव शिथिल होता चला गया। तथापि, उसी के कारण जो कितने ही जैन अनेक सनातनी हिन्दुप्रो की भाँति, स्वधर्म की वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण धर्म त्याग करते चले जा रहे थे उस मे भारी रोक थाम हो गई । प्रत्युत्त कुवर दिग्विजयसिंह, बाबा भागीरथ जी वर्णी, पं० गणेश प्रसाद जी, मु० कृष्ण लाल वर्मा, महषि शिवव्रत लाल वर्मन, प्रो० धर्मचन्द्र, स्वामी कर्मानन्द जी आदि अनेक कट्टर जैन विरोधी जैनेतर विद्वान भी जैन धर्म के परम भक्त और उत्कट प्रचारक हो गये ।
अब समाजगत मोटी मोटी कुरीतियों की प्रोर सकेत मात्र करमा पर्याप्त नही रह गया। सामाजिक संगठन को दृढ़ करने और विवाह संस्था सम्बन्धी विभिन्न धार्मिक सामाजिक प्रश्नों की विशद मीमासा करने की मावश्यकता