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विदेश हितंची' लाखक एक भी नवना किया थोड़े समय के उपन्त उन्होंने नों को ब नाकर कार्यालय भोर जैन हिलेची (मासिक) के रूप में परिवर्तित कर दिया । झगे चलकर उपरोक्त सस्था की ही एक लाखा 'हिन्दी बना रत्नाकर कार्यालय बस्बई के नाम से प्रसिद्ध हुई । बाकलीवाल जी ने ही सर्व प्रथम बंगाली समाज मे जैन धर्म का प्रचार करने का विचार किया और उसके हेतु बसला भाषा मे 'जैन धर्मोर किंचित परिचय' तथा 'जैन सिद्धान्त दिग्दर्शन' ताम्रक मुस्तकें सन् १९१० मे निर्माण की । बगला पत्र 'जिनवासी' के जन्मदाता भी नहीं थे।
इस प्रकार इस युग के अन्त तक छापा आन्दोलन प्रायः सफल हो गया था। विरोध उसके पश्चात् भी दसियो वर्ष चलता रहा किन्तु वह पर्याप्त शिथिल हो गया था। इस युग प्रकाशनो मे तिनोक्त तीन प्रकार को 'पुस्तकों का ही बाहुल्य था - (१) धार्मिक खण्डल मण्डनात्मक, विशेषकर आर्य समाज के प्रक्षेपों को लक्ष्य मे रखकर, (२) मोटी मोटी सामाजिक कुरीतियो के निवारणार्थ लिखे गये छोटे छोटे ट्रॅक्ट प्रादि, (३) पूजा पाठ, भजन विनती, व्रत कथाए, कतिपय पुराण चारित्र श्रादि ग्रन्थ ।
इस युग मे पुस्तक प्रकाशन का कार्य विभिन्न व्यक्तियो द्वारा स्वतन्त्र रूप से प्राय. निस्वार्थ एव धर्मार्थ भाव से ही अधिक चला। लाहौर के हकीम ज्ञानचन्द्र जैनी तथा देवबन्द - सहारनपुर के ला० जैनीलाल ने विशेषकर तीसरे प्रकार की छोटी छोटी पस्तकें बहु सख्या मे प्रकाशित की। खण्डन-मडनात्मक साहित्य विशेषकर फर्रुखनगर, इटावे, अलीगढ़ और सहारनपुर से प्रकाशित हुमा ।
इन सबके अतिरिक्त इसी युग मे हिन्दी भाषा और साहित्य के आधुनिक युग का प्रारम्भ हुआ । लोक भाषा चोर बोक साहित्य के रूम से उसकी स्वतन अत्ता को प्रतिष्ठित करने के प्रयत्न चालू हुए। शाधुनिक खड़ी बोली की तीन . पद्य शैलियों का सूत्रपात हुला । हिन्दी के पुस्तक प्रकाशन और सामग्रिक