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यद्यपि प्रथम जैन पुस्तक दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा ही सन् १८५० मे मुद्रित कराई गई थी, किन्तु प्रारभ में रूढिग्रस्थ मन्धश्रद्धालु जैन समाज ने छापे का अत्यन्त विरोध किया । एक जैन समाज ने ही क्या, प्रारभ मे हिन्दू समाज ने भी उनका तीव्र विरोध किया। सन् १८६३ मे प्रकाशित श्री गोविन्द नारायण माडगावकर कृत 'मुम्बई वर्णन' नामक पुस्तक के पृ० २४८ पर लिखा है कि"हमारे कुछ भोले व नैष्ठिक ब्राह्मण छपे कागज का स्पर्श करते डरते थे और भाज भी डरते हैं । बम्बई में और बम्बई के बाहर भी ऐसे बहुत से लोग है जो छपी हुई पुस्तक को पढना तो दूर रहा, छपे कागज को स्पर्श तक नही करते हैं।"
यही दशा, बल्कि इससे भी कुछ बुरी दशा जैन समाज की थी । जैनी लोग अपने मन्दिरों के शास्त्र भडारों मे सग्रहीत हस्तलिखित ग्रन्थों को देव प्रतिमा तुल्य पवित्र और पूज्यनीय मानते थे और उनका विधिवत् दर्शन पूजन करना ही अलम् समझते थे। यदि किसी साधु या विद्वान् पडित आदि का समागम हुआ तो पुनः स्नानादि द्वारा शरीर शुद्धि करके मन्दिर मे रखे शुद्ध वस्त्रो को पहन कर दरी आदि के फर्श पर भी चटाई बिछाकर और शास्त्र जी को चौकी पर विराजमान करके बडी विनय पूर्वक उनका वाचन कर श्रद्धालु जनता को सुनाया जाता जाता था । शास्त्र सभा का डिसप्लिन बडा भक्ति और विनय पूर्ण होता था, और प्राय अब तक यही प्रथा है। जिन गृहस्थो को शास्त्र स्वाध्याय का नियम होता वे भी शरीर शुद्ध कर पूजादि के उपयुक्त शुद्ध वस्त्र घोती दुपट्टा आदि पहन मन्दिर के स्वाध्याय भवन मे ही बैठकर विनय पूर्वक उक्त ग्रन्थो का स्वाध्याय कर सकते थे । सामान्य दैनिक वस्त्र चाहे वे कितने भी शुद्ध क्यो न हो उन्हे पहने हुए शास्त्र जी को स्पर्श भी नही किया जा सकता था। शूद्रो का तो मन्दिर में या शास्त्र भडार में प्रवेश भी नही हो सकता था और स्त्रियाँ भी शास्त्रों को नहीं छू सकती थी। अन्य धर्मावलम्बी सवर्ण व्यक्तियों को भी ये शास्त्र इसलिए नही दिखाये जाते थे कि वे लोग मिथ्याश्रद्धानी होने कारण हमारी देव गुरु के समकक्ष पूज्य जिनवाणी की