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[ २८ ] अनेक प्रपंचों (झगड़ों) को तो जानता है। अपने स्वरूपकी तरफ क्यों नहीं देखता ? वह निज स्वरूप ही उपादेय है, अन्य कोई नहीं है ।।२७।।
अथ ऊर्ध्वं प्रक्षेपपञ्चकं कथयन्ति । तद्यथाजित्थु ण इदिय-सुह-दुहई जित्थु ण मण-बावारु । . सो अप्पा मुणि जीव तुहूं अण्णु परि अवहारु ॥२८॥
यत्र नेन्द्रियसुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः ।
तं आत्मानं मन्यस्व जीव त्वं अन्यत्परमपहर ॥२८॥ इससे आगे पांच प्रक्षेपकों द्वारा आत्मा ही का कथन करते हैं-(यत्र) जिस शुद्ध आत्मस्वभाव में (इन्द्रियसुखदुःखानि) आकुलता रहित अतीन्द्रियसुखसे विपरीत ज आकुलताके उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियजनित सुख दुःख (न) नहीं हैं, (यत्र) जिसमें (मनोव्यापारः) संकल्प-विकल्परूप मनका व्यापार भी (न) नहीं है, अर्थात विकल्प रहित परमात्मासे मनके व्यापार जुदे हैं, (तं) उस पूर्वोक्त लक्षणवालेको (हे जीव त्वं) हे जीव, तू (आत्मानं) आत्माराम (मन्यस्व) मान, (अन्यत्परं) अन्य सब विभावोंको (अपहर) छोड़।
भावार्थ-ज्ञानानन्दस्वरूप निज शुद्धात्माको निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर होकर जान, अन्य परमात्मस्वभावसे विपरीत पांच इन्द्रियोंके विषय वगैरह सब विकार परिणामोंको दूरसे ही त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर। यहां पर किसी शिष्यने प्रश्न किया, कि निर्विकल्पसमाधिमें सब जगह वीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते हैं-जहां पर वीतरागता है, वहीं निर्विकल्पसमाधिपना है, इस रहस्यको समझाने के लिये अथवा जो रागी हुए कहते हैं कि, हम निर्विकल्पसमाधिमें स्थित हैं, उनके निषेधके लिये वीतरागता सहित निविकल्पसमाधिका कथन किया गया है, अथवा सफेद शङ्खकी तरह स्वरूप प्रगट करनेके लिए कहा गया है, अर्थात् जो शङ्ख होगा, वह श्वेत ही होगा, उसी प्रकार जो निर्विकल्पसमाधि होगी, वह वीतरागतारूप ही होगी ॥२८॥
अथ यः परमात्मा व्यवहारेण देहे तिष्ठति निश्चयेन स्वस्वरूपे तमाहदेहादेहहिं जो वसइ भेयामेय-णएण । सो अप्पा मुणि जीव तुहूं किं.अगणें वहुएण ।।२६।।