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आत्मा योगिन् सर्वगतः आत्मा जडोऽपि विजानीहि ।
आत्मानं देहप्रमाणं मन्यस्व आत्मानं शून्यं विजानीहि ।। ५१ ।।
आगे नय- विभागकर आत्मा सबरूप है, एकान्तवादकर अन्यवादी मानते हैं,
सो ठीक नहीं है, इस प्रकार चारों प्रश्नोंको स्वीकार करके समाधान करते हैं - (हे योगिन् ) हे प्रभाकरभट्ट, ( आत्मा सर्वगतः ) आगे कहे जानेवाले नयके भेदसे आत्मा सर्वगत भी है, (आत्मा) आत्मा (जडोsपि ) जड़ भी है ऐसा (विजानीहि ) जानो, ( आत्मानं देहप्रमाणं) आत्माको देहके बराबर भी ( मन्यस्व) मानो, ( आत्मानं शून्यं) आत्माको शून्य भी (विजानीहि ) जानो । नय - विभाग से माननेमें कोई दोष नहीं हैं, ऐसा तात्पर्य है ।। ५१ ।।
अथ कर्मरहितात्मा केवलज्ञानेन लोकालोकं जानाति तेन कारणेन सर्वगतो भवतीति प्रतिपादयति
अप्पा कम्म-विवज्जियउ केवल गाणें जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु बुच्चइ ते ॥ ५२ ॥ आत्मा कर्मविवर्जितः केवलज्ञानेन येन ।
लोकालोकमपि मनुते जीव सर्वगः उच्यते तेन ।। ५२ ।।
आगे कर्मरहित आत्मा केवलज्ञानसे लोक और अलोक दोनोंको जानता है, इसलिये सर्वव्यापक भी हो सकता है, ऐसा कहते हैं - ( आत्मा ) यह आत्मा ( कर्मविवर्जितः) कर्मरहित हुआ (केवलज्ञानेन ) केवलज्ञानसे (येन ) जिस कारण ( लोकालोकमपि ) लोक और अलोकको (मनुते ) जानता है, (तेन) इसीलिये (हे जीव) हे जीव, ( सवर्गः ) सर्वगत (उच्यते) कहा जाता है ।
भावार्थ - यह आत्मा व्यवहारनयसे केवलज्ञानकर लोक अलोकको जानता है, और शरीर में रहने पर भी निश्चयनयसे अपने स्वरूपको जानता है, इस कारण ज्ञानकी अपेक्षा तो व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थको नेत्र देखते हैं, परन्तु उन पदार्थोंसे तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं । यहां कोई प्रश्न करता है, कि जो व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो व्यवहारसे सर्वज्ञपना हुआ, निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं- जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता है, उस तरह परद्रव्यको