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श्री पद्मप्रभ जिन स्तुति
यहां पर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि हे सुमतिनाथ । श्रापका यह सिद्धान्त पक्का है, अकाट्य है, मानवीय है । इसलिये हम आपको यथार्थ वक्ता मानकर प्रापको ही स्तुति करते हैं और यह भावना करते हैं कि जैसा श्रापका नाम है वैसा ही गुरण हमको प्रदान कीजिये अर्थात् आपकी भक्ति व स्तुति करने से मेरे अन्दर जो ज्ञान का आवरण है वह दूर हो और मेरा ज्ञान बढ़ता चला जावे । अन्त में मैं आपके ही समान केवलज्ञानी हो जाऊं ।
त्रोटक छन्द
विधि वा निषेध सापेक्ष सही गुण मुख्य कथन स्याद्वाद यही ।
इम तत्त्व प्रदर्शी ग्राप सुमति, श्रुति नाथ करू हो श्रेष्ठ सुमति ॥ २५ ॥
(६) श्री पद्मप्रभ जिन स्तुतिः
पद्मप्रभः पद्मपलाश लेश्यः पद्मालयालिङ्गितचारुमूर्तिः ।
भौ भवान् भव्यपयोरुहाणां, पद्माकराणामिन पद्मबन्धुः ॥ २६ ॥
अन्वयार्थ - ( पद्मप्रभः) कमल की प्रभा के समान प्रभाधारी ऐसे छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ देव ( पद्मपलाशलेश्यः ) सफेद कमल के पत्र संमान शुक्ल लेश्या के धारी हैं । ( पद्मालयालिंगित चारुमूर्तिः ) लक्ष्मी ने जिनकी सुन्दर मूर्ति को आलिंगन कर लिया है । आत्मा को तो अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयं रूपी लक्ष्मी व वीतरागतारूपी लक्ष्मी प्रालिंगन कर रही है, शरीर को पसेव रहितपना, महान रूपपना, १००८ लक्षणपना आदि लक्ष्मी प्रालि - गर्न कर रही है ऐसे ( भवान् ) ग्राप पद्मप्रभ भगवान ( प्रभाकरारगां ) कमलों के विकास के लिये ( पद्मबन्धुः इव ) सूर्य के समान ( भव्यपयोरुहाणां ) भव्यरूपी कमलों के प्रसन्न करने के लिये (बभौ ) शोभते हुए ।
भावार्थ - यहां पर श्राचार्य ने श्री अरहन्त भगवान की उस समय की शोभा बताई है जब वे तेरहवें सयोग गुणस्थान में समवसरण सहित अपनी दिव्य गंधकुटी में शोभायमान होते हैं । भगवान का शरीर लाल कमल के समान लाल रंग का परस शोभनीक