________________
८७
-
श्री पुष्पदंत जिन स्तुति द्रव्य नित्य न होता तो भात को सूरत में न प्राता। ऐसा नित्य व अनित्यपना एक ही समय हरएक वस्तु के भीतर मौजूद है,इसलिए वस्तु अनेकान्त स्वरूप है । यही हे भगवन् ! पापका दर्शन है. तथा इसमें कोई विरोध नहीं पाता है। स्वयं स्वामी प्राप्तमीमांसा में कहते हैं
कार्योत्पादः क्षयों हेतुनियमल्लक्षणात् पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्यानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ।।५८॥ . भावार्थ-वास्तव में जब जब जो कार्य बनता है वह अपने कारण के क्षय बिना नहीं बनता है यह नियम है। तब कारण कार्य पृथक् २ प्रगट होते हैं। परन्तु वे कारण व कार्य दोनों ही अपनी जाति आदि की स्थिरता के कारण से भिन्न नहीं हैं, वे ही हैं। जब हम मूल उपादान कारण के स्वभाव पर दृष्टि डालते हैं तो वही हैं, ऐसा ध्रुवपना दिखता है । जब पर्याय पर दृष्टि डालते हैं तो भिन्नपना या अनित्यपना दिखता है। यदि अपेक्षा को न मानो तब नित्य व अनित्यपना आकाश के फूल के समान हो जायगा। ऐसा सच्चा वस्तु का स्वभाव हे जिनेन्द्र ! आपने ही बताया है ।
पद्धरी छन्द्र .. यह है वह ही है नित्य सिद्ध, यह अन्य भया यों क्षणिक सिद्ध ।
नहि है विरुद्ध दोनों स्वभाव, अन्तर बाहर साधन प्रभाव ॥४३।।
.. उत्थानिका-यद्यपि वस्तु अनेकान्त स्वरूप प्रत्यक्षादि प्रमारणों से सिद्ध है तथापि पागम से तो एकान्त स्वरूप ही सिद्ध होगी। इस शंका का निराकरण करते हैं
अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या ।
आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो, गुणानपेक्षनियमेऽपवादः ॥४४॥ ..' अन्वयार्थ--(अनेकं च एकं पदस्य वाच्यं) अनेक तथा एक पद का वाच्य अनेक व
एकपना है । अर्थात् शब्द व पद वाचक हैं, उनसे जो पदार्थ प्रगट होता है वह वाच्य है। वस्तु एक तथा अनेक रूप है। ऐसा कहने से यह सिद्ध होता है कि वस्तु सामान्य विशेष रूप है (प्रकृत्या) यह शब्दों के स्वभाव से हो अर्थ का बोध होता है (वृक्षा इति प्रत्ययवत्) जस वृक्ष शब्द के कहने से यह निश्चय होता है कि वृक्षों में वृक्षपना सामान्य है, तथापि विशषपना भी है अर्थात वृक्ष बहत से हैं, वे बम्बूल, प्राम, अनार आदि अनेक विशेष प्रकार • के है। (आकांक्षिगणः) जो सामान्य और विशेषपने में से किसी एक धर्म को कहना चाहता