Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 461
________________ श्री शांतिनाथ स्तुति १४ तत्त्वानुशासन में कहा है ध्यातोर्हत्सिद्धरूपेण चरमांगाय मुक्तये । तद् ध्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ॥ १६७॥ भावार्थ - श्रहंत व सिद्ध रूप से अपने श्रात्म का ध्यान करे श्रौर वह तद्भव मोक्षगामी हो तो वह ध्यान मुक्ति देता है नहीं तो उस ध्यान के होते हुए जो महान पुण्य बन्ध होता है उससे दूसरे भव्य जीव को अनेक भोगों की प्राप्ति होती है । नाराच छन्द | परम विशालचक्रते जु सर्व शत्रु भयकरं, नरेन्द्र के समूह को सुजोत चक्रधर वरं । हुए यतीश प्रात्मध्यान चक्र को चलाइया । प्रजेय मोह नाश के महाविराग पाइया ॥७७॥ उत्थानिका -- सराग व वीतराग अवस्था में भगवान् ने कौनसी लक्ष्मी पाई सो कहते हैं- राजश्रिया राजसु राजसिंहो, रराज यो राजसुभोगतन्त्रः । श्रार्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रो, देवाऽसुरोदारसभे रराज ॥ ७८ ॥ अन्वयार्थ - [यः राजसिंहः ] जो परम प्रतापशाली राजसिंह [ राजसुभोगतन्त्रः ] राजापों के महा मनोहर भोगों के भोगने में स्वाधीन होते हुए [ राजसु ] राजात्रों के मध्य में [ राजश्रिया ] चक्रवर्ती पदों की लक्ष्मी से ( रराज ) शोभते हुए (पुनः) फिर जब प्रापने मोह नाश करके केवलज्ञान पाया तब ( ग्रात्मतंत्रः ) अपने स्वरूप में मगन होते हुए प्राप ( देवासुरोदारसभे) सुर प्रसुरों की बड़ी सभा के भीतर, (ग्रर्हन्त्यतक्ष्म्या ) ग्रहन्तपद की लक्ष्मी से ( रराज) शोभते हुए । भावार्थ --- यहां पर भी शांतिनाथ भगवान की वीरता को झलकाया है कि स्वामी जब चक्रवर्ती पद में थे तब श्राप नौनिधि, चौदह रत्न के स्वामी थे । निःकंटक पूर्ण स्वतंत्रता से न्याय पूर्वक पांच इन्द्रियों के भोगों को भोगते थे । उस समय राजाओं की . सभा लगती थी तब बत्तीस हजार सुकुटबद्ध राजा आपकी विनय करते हुए विराजते थे । उनके मध्य में श्राप सिंहासन छत्रादि राज्य विभूति के विराजित होते हुए बड़ी ही शोभा को विस्तारते थे । जब श्रापने अपने ध्यान रूपी सुदर्शन चक्र के प्रताप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय इन चार कर्मों का क्षय किया तब आप परम स्वाधीन

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