Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 497
________________ श्री नमिनाथ स्तुति १८६ ( अभवत् ) हो गए । ( मम अपि ) मेरे लिये भी ( भवोपशांतये भवतु ) प्राप संसार के नाश के लिए काररग होवें । - भावार्थ - श्रात्मा में अनादिकाल से ज्ञानावरण आदि आठ कर्म का मैल लगा हुआ था । उस मैल को है सुनिसुव्रतनाथ ! आपने श्रात्मध्यानमई परम शुक्लध्यान के वल से जला डाला । आपने अपने आत्मा को परम शुद्ध कर लिया तब स्वाभाविक प्रात्मिक इन्द्रिय रहित श्रानन्द के आप भोक्ता होगए । प्राप मोक्ष में निरन्तर स्वात्मीक सुख का प्रानन्द ले रहे हो । हे प्रभु! मैं भी स्तुति करके यही चाहता हूं कि मेरा भी यह संसार नाश हो और मैं भी आत्मीक सुख को निरन्तर भोगने वाला हो जाऊ । वास्तव में आत्मीक सुख ही सच्चा सुख है । नागसेन मुनि तत्त्वानुशासन में कहते हैं प्रात्मायत्तं निरावाघमतीन्द्रियमनश्वरं । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ।। २४२ ।। भावार्थ - जो आत्मा हो के आधीन है, बाधा रहित है, इन्द्रिय सुख से विपरीत प्रतीन्द्रिय है, अविनाशी है व जो चार घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न होता है वही मोक्ष सुख है। सृग्विणी छन्द आपने प्रष्ट कर्म क्लकं महा, निरुपमं ध्यान वल से सभी है दहा । भवरहित मोक्ष सुख के धनी होगए, नाश संसार हो भाव मेरे भए ।। ११५ ।। ( २१ ) श्री नमिनाथ जिन स्तुतिः स्तुतिस्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीनाज्जगति सुलभे श्रायसंपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान्सततमभि पूज्यं नमिजिनम् ॥ ११६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525