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श्री मुनिसुव्रत जिन स्तुति
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है ( शिवं ) प्रति सुन्दर व शांत है तथा ( प्रतिविस्मयं ) प्रति आश्चर्य को उपजाने वाला है ( यदपि च वाङ्गमनसोऽयम् ईहितम् ) ऐसी ही शुभ व शांत आपकी वचन व मन की चेष्टा है ।
भावार्थ -- तीर्थंकर भगवान के शरीर में जन्म से ही खूब सफेद रंग का लोहू होता है । शरीर चन्द्रमा के समान निर्मल होता है । शरीर में बड़ी भारी सुगन्ध होती है । कोई मैल नहीं होता है । केवलज्ञान अवस्था में तो वह शरीर परमोदारिक, परम सुन्दर, परम कांतिमय, परम शांत, परम आश्चर्यकारी हो जाता है । इसी तरह भगवान का द्रव्यमन भी बड़ा ही शुभ रहता है । तथा भगवान की वारणी भी परम पवित्र व हितकारी प्रगट होती है ।
सृग्विणी छन्द
आपके में शुक्ल ही रक्त था, चन्द्रसम निर्मलं रजरहित गंध था । आपका शांतिमय प्रद्भुत तन जिनं, मन वचन का प्रवर्तन परम शुभ गणं ॥ उत्थानिका - श्री जिनेश्वर की दिव्यध्वनि से यह सिद्ध होता है कि भगवान सर्वज्ञ हैं ऐसा प्राचार्य कहते हैं
स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षरणम् ।
इति जिनसकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ ११४ ॥
अन्वयार्थ :- (जिन ) हे जिनेन्द्र ! ( ते वदतां वरस्य इदं वचनं ) श्राप उपदेश दातों में श्रेष्ठ हैं आपका यह वचन कि ( चरं प्रचरं च जगत् ) चेतन द प्रचेतन रूप यह जगत् ( प्रतिक्षणं ) हरएक समय ( स्थितिजनननिरोधलक्षरगं ) उत्पाद व्यय व्य लक्षण वाला है ( इति ) यही ( सकलज्ञलांछन ) इस बात का चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं।
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भावार्थ- सर्व पदार्थों की जैसी अवस्था है उस सबके श्राप ज्ञाता है । इसीलिये आपने जगत का जैसा वास्तव में स्वरूप है वैसा हो कहा है। यही इस बात का चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं व इसीलिए श्राप परम प्राप्त हैं । इस लोक में कोई लोग जगत को सर्वथा