Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 495
________________ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तुति १८७ है ( शिवं ) प्रति सुन्दर व शांत है तथा ( प्रतिविस्मयं ) प्रति आश्चर्य को उपजाने वाला है ( यदपि च वाङ्गमनसोऽयम् ईहितम् ) ऐसी ही शुभ व शांत आपकी वचन व मन की चेष्टा है । भावार्थ -- तीर्थंकर भगवान के शरीर में जन्म से ही खूब सफेद रंग का लोहू होता है । शरीर चन्द्रमा के समान निर्मल होता है । शरीर में बड़ी भारी सुगन्ध होती है । कोई मैल नहीं होता है । केवलज्ञान अवस्था में तो वह शरीर परमोदारिक, परम सुन्दर, परम कांतिमय, परम शांत, परम आश्चर्यकारी हो जाता है । इसी तरह भगवान का द्रव्यमन भी बड़ा ही शुभ रहता है । तथा भगवान की वारणी भी परम पवित्र व हितकारी प्रगट होती है । सृग्विणी छन्द आपके में शुक्ल ही रक्त था, चन्द्रसम निर्मलं रजरहित गंध था । आपका शांतिमय प्रद्भुत तन जिनं, मन वचन का प्रवर्तन परम शुभ गणं ॥ उत्थानिका - श्री जिनेश्वर की दिव्यध्वनि से यह सिद्ध होता है कि भगवान सर्वज्ञ हैं ऐसा प्राचार्य कहते हैं स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षरणम् । इति जिनसकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ ११४ ॥ अन्वयार्थ :- (जिन ) हे जिनेन्द्र ! ( ते वदतां वरस्य इदं वचनं ) श्राप उपदेश दातों में श्रेष्ठ हैं आपका यह वचन कि ( चरं प्रचरं च जगत् ) चेतन द प्रचेतन रूप यह जगत् ( प्रतिक्षणं ) हरएक समय ( स्थितिजनननिरोधलक्षरगं ) उत्पाद व्यय व्य लक्षण वाला है ( इति ) यही ( सकलज्ञलांछन ) इस बात का चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं। : भावार्थ- सर्व पदार्थों की जैसी अवस्था है उस सबके श्राप ज्ञाता है । इसीलिये आपने जगत का जैसा वास्तव में स्वरूप है वैसा हो कहा है। यही इस बात का चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं व इसीलिए श्राप परम प्राप्त हैं । इस लोक में कोई लोग जगत को सर्वथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525