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स्वयंभू स्तोत्र टीका बृहत्फरणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडित्पिगरुचोपसगिरणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ।।
अन्वयार्थ-( धरणः नागः ) धरणेन्द्र नाम के नागकुमार इन्द्र ने (यं उपसगिणं) जिस उपसर्ग से पीड़ित पार्श्वनाथ को ( स्फुरत्तडिपिङ्गरुचा ) चमकती हुई बिजली के रंग समान पीत रंगधारी(बृहत्फणमण्डलमण्डपेन)बड़े फरणों के मण्डलरूपी मण्डप से (जुगृह) वेष्ठित कर दिया (यथा) जिस तरह (विरागसंध्यातडिदंबुदः) लाली रहित काली संध्या के सयय बिजली सहित मेघ ( धराधरं ) पर्वत को बेढ़ लेते हैं।
___भावार्थ--यहां पर यह दृश्य दिखाया है कि जब पार्श्वनाथ भगवान पर उपसर्ग पड़ रहा था उस समय धरणेन्द्र सूर्य के रूप में आता है और बिजली के समान चमकते हुए अपने फरणों का मण्डप प्रभु के ऊपर कर लेता है जिससे प्रभु की रक्षा पवन जलादि से हो जाती है । उस समय का दृश्य ऐसा मालम होता था मानों पर्वत को काली संध्या के समय बिजली से चमकते हुए मेघों ने घेर लिया हो। उपसर्ग के समय खूब अंधेरा था,बादल नीले । छा रहे थे,तब एक तरफ बिजली चमकती थी, दूसरी तरफ धरणेन्द्र के फरण पीले चमकते
थे जिससे ऐसा ही दृश्य दिखता था कि पर्वत को बिजली सहित मेघों ने घेर लिया हो।
पद्धरी छन्द घरणेन्द्र नाग निज फण प्रसार बिजलीवत् पीत सुरङ्ग धार ।
श्री पार्श्व उपद्रुत छाय लीन, जिम नग तडिदम्वुद सांझ कोन ॥ १३२ ।। उत्थानिका-उपसर्ग निवारण होने पर प्रभु ने क्या किया सो कहते हैं-- स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पद पदम् ॥ १३३।।
अन्वयार्थ-( यः ) जिस पार्श्वनाथ भगवान ने ( स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया) अपने शुक्लध्यान रूपी खड़ग की तेज धार से (दुर्जयमोहविद्विपं) अत्यन्त दुर्जय पोहरूपी शत्रु को (निशात्य) क्षय करके (त्रिलोकपूजातिशयास्पदं). तीन लोक के प्राणियों से पूजा