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श्री नमिनाथ स्तुति
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( अभवत् ) हो गए । ( मम अपि ) मेरे लिये भी ( भवोपशांतये भवतु ) प्राप संसार के नाश के लिए काररग होवें ।
- भावार्थ - श्रात्मा में अनादिकाल से ज्ञानावरण आदि आठ कर्म का मैल लगा हुआ था । उस मैल को है सुनिसुव्रतनाथ ! आपने श्रात्मध्यानमई परम शुक्लध्यान के वल से जला डाला । आपने अपने आत्मा को परम शुद्ध कर लिया तब स्वाभाविक प्रात्मिक इन्द्रिय रहित श्रानन्द के आप भोक्ता होगए । प्राप मोक्ष में निरन्तर स्वात्मीक सुख का प्रानन्द ले रहे हो । हे प्रभु! मैं भी स्तुति करके यही चाहता हूं कि मेरा भी यह संसार नाश हो और मैं भी आत्मीक सुख को निरन्तर भोगने वाला हो जाऊ । वास्तव में आत्मीक सुख ही सच्चा सुख है ।
नागसेन मुनि तत्त्वानुशासन में कहते हैं
प्रात्मायत्तं निरावाघमतीन्द्रियमनश्वरं । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ।। २४२ ।।
भावार्थ - जो आत्मा हो के आधीन है, बाधा रहित है, इन्द्रिय सुख से विपरीत प्रतीन्द्रिय है, अविनाशी है व जो चार घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न होता है वही मोक्ष सुख है।
सृग्विणी छन्द
आपने प्रष्ट कर्म क्लकं महा, निरुपमं ध्यान वल से सभी है दहा । भवरहित मोक्ष सुख के धनी होगए, नाश संसार हो भाव मेरे भए ।। ११५ ।।
( २१ ) श्री नमिनाथ जिन स्तुतिः स्तुतिस्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीनाज्जगति सुलभे श्रायसंपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान्सततमभि पूज्यं नमिजिनम् ॥ ११६ ॥