Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 482
________________ १७२ स्वयंभू स्तोत्र टीका सब मिथ्या होगा। जैसे हम जीव को यदि एकान्त से नित्य माने तो वह सदा कूटस्थ एकसा रहेगा, उसमें न अशुद्धता हो सकती है न कभी वह शुद्ध हो सकता है, तब उपदेश आदि सब निरर्थक हो जायगा, परलोक आदि का सब अभाव हो जायगा। जो कोई एकान्त मत को पकड़नेवाले हैं उनका खंडन स्वयं उनही से हो जायगा । जैसे यदि हम वस्तु को अढत एक ही माने तो प्रात्मा व परमात्मा का व जीव व ब्रह्म का कोई भेद जो कहा जाता है वह नहीं रहेगा । जैसा कि प्राप्तमीमांसा में कहा है भव तैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कार काणां कियायाश्च नकं स्वस्मात् प्रजायते ॥२४॥ - भावार्थ-यदि अद्वत का एकान्त पक्ष माना जाय तो जो लोक में भेद दिखलाई पड़ता है वह न रहना चाहिये । कर्ता, कर्म, कारण के भेद न रहेंगे, न क्रिया का भेद रहेगा कि यह दहन क्रिया है यह वचनक्रिया है इत्यादि । तथा एक अकेले से भिन्न २ प्रकार का जगत कैसे उत्पन्न हो सकता है । पद्धरी छन्द । तुम अनेकान्त मत ही यथार्थ, यातें विपरीत नहीं यथार्थ । एकान्त दृष्टि है मृषा वाक्य, निज घातक सर्व अयोग्य वाक्य ।।८।। उत्थानिका-शंकाकार कहता है कि अनेकान्त मत में विरोध आदि दोषों का संभव है वह यथार्थ कैसे ? इसका समाधान प्राचार्य करते हैं ये परस्खलितोनिद्राः स्वदोषेभनिमीलिनः । तपस्विनस्ते किं कुर्य पात्रं त्वन्मतश्रियः ॥६६॥ अन्वयार्थ-[ ये ] जो [तपस्विनः] एकान्त मत के माननेवाले तपस्वी [परस्खलितोन्निद्राः] पर जो अनेकान्त मत उसके खंडन करने में जागृत हैं वे [स्वदोपेभनिमीलिनः] अपने एकान्त मत में क्या क्या दोष पाते हैं उनके देखने में हाथी के समान हो रहे हैं अर्थात् एकान्त मत में जो दोष पाते हैं उनको जानबूझकर छिपा रहे हैं [ ते ] वे [ त्वन्मश्रियः ] आपके अनेकान्त मतरूपी लक्ष्मी के पाने के लिये [ अपात्रं ] पात्र नहीं है [किं कुर्यु:] वे विचारे क्या कर सफते हैं ? न तो अपने पक्ष को सिद्ध कर सकते हैं न अनेकान्त का हो खण्डन कर सकते हैं ।

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