Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 440
________________ १२४ स्वयंभू स्तोत्र टीका दोनों में ही सामान्यपने का अति प्रसङ्ग आ जायगा, तो उसका उत्तर यह है कि नहीं नायगा (स्यात् इति विवक्षितात्) स्यात् या कथंचित् की अपेक्षा से ( अन्यवर्जनम् ) दूसरे अविवक्षित् अर्थात् जिसको कहने की अपेक्षा नहीं है उसका निषेध हो जायगा [ते] यह प्रापका मत है। भावार्थ-यहां पर हष्टान्त से समझना चाहिये कि जैसे हमने सपं को देखा और कहा कि यह सांप है, तब यह वचन और पदार्थों से सर्प को भिन्न करता है व अपना जान कराता है। तब औरों से भिन्न करने वाला जो भाव यह तो विशेष हया। तथा सपना सांप में सामान्य है। बहन से सर्प भी सर्प होते हैं, इसलिये यहां सर्पपना विशेषरण रहा। अर्थात सर्प में दूसरे पदार्थों की भिन्नता है । इसलिये विशेषपना है व सर्पपना बहुत से सपों में है इसलिये सामान्यपना है। दोनों हो धर्म पौजूद है । यहां कहने वाले का मतलब इस वाक्य में कि 'सर्प है' यह था कि वह सर्प की जाति विशेष को बतावे कि यह सर्प है और कुछ नहीं है । इसलिए यह विशेष हुआ। तब ही उसमें सामान्यपना भी है. क्योंकि सर्प अनेक होते हैं। यहां सामान्य विशेषण हरा और विशेष्य विशेष हत्या । और जैसे हमने कहा कि यह सर्प काला है। यहां उसी सर्प में कालापन बताया है और सफेद प्रादिपना नहीं बताया है, इसलिए कालापना विशेष हा तथा सर्प सामान्य विशेपण हया कि सोमें से यह सर्प काला है। जहां कालापन विशेष है वहां सर्पपना सामान्य भी है। परन्तु कहने वाले के मत में कालापना विशेष्य को बताना है। तब सर्पपना सामान्य उसका विशेषरण होगया कि कालापन वह जो इस माप में है यह अभिप्राय कहने वाले का है। यहां फिर कोई कहेगा कि जो विशेष है वही सामान्य होगया व जो सामान्य था वह विशेष होगया तो उसका समाधान यह है कि कहने वाले को जो अपेक्षा होती है उससे कोई विरोध नहीं आ सकता, वह अपने वचनों से ही जिसे वह कहना चाहता है नियमित कर देता है । स्यात् शब्द इसलिए लगाया जाता है कि जिस अपेक्षा से कहा जाय उसी अपेक्षा से समना जाय । यह सर्प काला है इसमें स्यात शब्द लगा हना है कि यह सपं माना है इस अपेक्षा से फि इसका बाहरी दिखने वाला अङ्ग काला है. इसके दांत भी काले ही हैं यह अभिप्राय नहीं होता है। वह मर्प सर्वया काला है यह मत नव नहीं है। प्रयोजन कहने का यही है कि प्रनेकांत मत में निर्वाध सवं वचन सिद्ध हो सकते हैं. एकान्त मत में नहीं हो सतते । जो वस्तु को सर्वथा सामान्य मानेंगे उनके मतमें व जो सर्वथा विशेष मानेंगे उनके मतमे कथन बनेगा ही नहीं-हरएक वस्तु सामान्य व विशेषरूप है। दोनों सामान्य तथा विशेष धर्म वस्तु में हैं ऐमा मानने से ही ठीक वस्तु समझ में प्रायगी । जब हमने कहा कि जीय है। यहां जीयपना बताना विशेष्य हैं कि यह जीव है अन्य कोई नहीं है। तब इस कहा

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