Book Title: Parmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Author(s): Yogindudev, Samantbhadracharya, Vidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 451
________________ श्री अनन्तनाथ स्तुति १३५ के नियमानुमार प्रत्यय के लोप के समान (प्रलीयते) नाश को प्राप्त होजाता है-दुर्गति में दुःख उठाता है । ( भवान् ) श्राप तो (तयोः अपि) उन दोनों पर भी (उदासीनतमः) प्रत्यन्त ही उदासीन रहते हैं । आप तो जरा भी उन पर राग व द्वष नहीं करते हैं (इदं तव इहितम् ) यह आपकी चेष्टा [परं चित्र] बड़ी ही आश्चर्यकारी है । भावार्थ-यहां यह बताया है कि वीतराग सर्वज्ञ भगवान अपने प्रात्मीक आनन्द में मगन रहते हैं, उनका आत्मा स्वरूप की स्थिति से किंचित् भी विचलित नहीं होता है । जगत में अनेक भव्यजीव तो आपकी बड़ी ही भक्ति करते हैं-खूब पूजा करते हैं और यह देखने में प्राता है कि वे लक्ष्मीवान व ऐश्वर्यवान हो जाते हैं तथा जो कोई अज्ञानी आपको नहीं पहचानते हैं वे आपकी निन्दा भी करते है उनको जगत में क्लेश हा ऐसा जानने में प्राता है। आप तो भक्त पर प्रसन्न होते नहीं, निन्दा करने वाले पर अप्रसन्न होते नहीं फिर यह क्या कारण है जो गुणानुवाद गाते हैं वे सुखी होते हैं व जो निन्दा करते हैं वे दुःखी होते हैं। इसका मर्म यह है जैसाकि श्री जिनेन्द्र भगवान ने बताया है। अपने अपने भावों के अनुसार संसारी जीव पुण्य तथा पाप बांधते हैं। जब भक्तिरूप शुभोपयोग होता है तब पुण्यकर्म का मुख्यता से बन्ध होता है, जब सच्चे धर्म व धर्म के नायक व धर्म के आदर्श से द्वोष होता है तब परिणाम में अशुभोपयोग हो जाता है-उससे पाप का बध होता है । यह वैज्ञानिक नियम है कि जब गर्मी होगी तब पानी का भाप अवश्य बन जायगा। वैसे ही जब जीव के भीतर अशुद्ध भाव होंगे तब कर्म का बंध अवश्य होगा, चाहे कोई चाहे या न - चाहे । इसी तरह जब कर्मों का उदय बाहरी निमित्तों के अनुकूल पाता है तब सुख व दुःख को सामग्री का सम्बन्धं प्राप्त हो जाता है। इसी तरह जैसे भोजन व औषधि व रोगिष्ट पदार्थ उदर में स्वयं पक करके निरोगता व सरोगता का फल दिखलाते हैं या मादक पदार्थ भीतर जाकर ध्यान को बावला कर देते हैं इसी तरह कर्म स्वयं पककर उदय पाते हैं तब सुख तथा दुःख मोहके कारणसे अनुभव में आता है । यह वस्तुका स्वभाव है। खेती करनेसे स्वयं पकती है,पाप पुण्य बंधनेके पीछे स्वयं पककर फल दिखलाते हैं । इसतरह संसारीजीव प्रापहो कर्ता तथा भोक्ता होरहे हैं। भगवान जिनेन्द्र पूर्ण वीतराग हैं। वे न किसीको सुख देते हैं न दुःख देते हैं तथापि उनकी भक्ति करनेसे हम अपना परम लाभ उठा लेते हैं। प्रभु मात्र उदासीन रहते हैं,हम उनको अपनी सेवा के कार्य में निमित्त मान लेते हैं तथा वे बड़े भारी प्रबल निमित्त हो जाते हैं जिससे हम परम पुण्य का बंध करलेते हैं । उसीके फल से यहां व - परलोक में ऐश्वयं का लाभ करते हैं। कोई ईश्वर परमात्मा हमको सुख तथा दुःख नहीं

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