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स्वयंभू स्तोत्र टीका। उससे कोई प्रयोजन नहीं है और परिग्रह का सम्बन्ध तबही होता है जब राग सहित भाव हो । सो आपके असम्भव है। आपकी सारी चेष्टा ही इच्छा रहित भव्य जीवों के पुण्य उदय की प्रेरणा से व आपके शरीरादि नामकर्म के उदय से होती रहती है । आपका विहार होता है । वारणी का प्रकाश होता है । तथापि आपके कुछ भी राग नहीं होता है ।
आपकी वाणी से सच्चा मोक्षमार्ग भी प्रकाशित होता है । तथापि आपके भीतर यह चिता व आकुलता व अभिमान नहीं होता है कि हमारे उपदेश से कोई भव्यजीव सुधरें। प्रापको न उपदेश देने की इच्छा है न उपदेश के फल पाने की इच्छा है । प्रापतो परम वीतराग हैं । बहुधा अल्पज्ञानी उपदेशकगण उपदेशदेकर तुर्त यह चाहते हैं कि इसका कुछ फल हुआ या नहीं । यदि कोई तुर्त फल न हुआ तो उपदेश देना निरर्थक समझ बन्द कर देते हैं। यह बड़ी भूल है। जैसे किसान खेत में पानी सोंचता है,बीज बोता है,यह भी जानता है. विश्वास रखता है कि फल समय पाकर अवश्य लगेगे । यदि अन्तराय का उदय न हुआ । उसीतरह दाताको साम्यभाव से सच्चा धर्मोपदेश देना चाहिये । तुर्त फल की प्राशासे आतुर न होना चाहिये । जैसे बीज यदि पृथ्वी में जमेगा और विघ्न बाधाओं से बचेगा तो अवश्थ फलदाई होगा,इसी तरह यदि उपदेश श्रोताओं के दिलोंमें जमेगा और उनका तीव्र मिथ्यात्व कषाय बाधक न होगा तो वे अवश्य सफल होंगे, मोक्षमार्ग को पाकर अपना हित करेंगे। साम्यभाव से उपदेश यथार्थ करना ही वक्ता का उद्देश्य है । फल के लिए कभी पाकुलित न होना चाहिये ।
प्राप्तस्वरूप में कहा हैकेवलज्ञानबोधेन बुद्धवान् स जगत् त्रयम् । अनन्तज्ञानसंकीर्ण तं तु बुद्ध नमाम्यहम् ।।३६।।
भावार्थ-जिसने केवलज्ञान रूपी बोध से तीन जगत के प्राणियों को ज्ञान प्रदान किया है उस अनन्तज्ञान से परिपूर्ण बुद्ध प्राप्त को नमस्कार करता हूं ।
सृग्विनी छन्द प्रातिहारज विभव प्रापके राजती । देह से भी नहीं रागता छाजती ।। देव मानव सुहित मोक्षमग कह दिया। होय शासनफलं यह न चितमें दिया ।.७३ ।।
सरिता
उत्थानिका-यदि आप शासन के फल से आतुर न भए तो आपने किसलिमें विहारादि किया उसका समाधान करते हैं