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श्री वासुपूज्य जिन स्तुति
योग्य है । यह आपका यथार्थ मत निर्बाध सिद्ध होता है । जो सिद्धान्त एकान्त हैं उनके मत में उपादान व निमित्त कारणों की सार्थकता नहीं बनती है, किन्तु प्रनेकान्त में ही बनती है | यदि वस्तु को मात्र भावरूप ही माना जाय तो उसकी पर्याय जो पहले प्रभावरूप थी वह न उत्पन्न होनी चाहिये । यदि सर्वथा अभावरूप माना जाय तो शून्यता का प्रसंग श्राता है किन्तु भावाभावरूप मानने से ही काम चलता है कि द्रव्य की अपेक्षा वस्तु सदा से भावरूप है, पर्याय के बदलनेकी अपेक्षा या अन्य द्रव्यों की अपेक्षा वस्तु प्रभाव रूप है । वस्तु को सर्वथा नित्य मानने से भी कार्य नहीं हो सकता, सर्वथा श्रनित्य मानने से भी नहीं हो सकता । जो दर्शन वस्तु को उभय रूप मानता है वहीं कार्य हो सकता है । द्रव्य का स्थिर रहते हुए पर्याय का पलटना हो कार्य है । द्रव्य जब नित्य हुआ तब पर्याय नित्य हुई । जीव नित्य है, तब ही वह संसारी से सिद्ध हो सकता है तथा संसार अवस्था अनित्य है तब ही वह बदलकर सिद्ध अवस्था हो जाती है । इस तरह. पदार्थ को जो अनेक धर्मरूप मानता है ऐसा जो हे वासुपूज्य भगवान ! प्रापका सिद्धान्त है: उसी में द्रव्य का यथार्थ स्वभाव कथित है व उसी में ही मोक्ष का मार्ग बन सकता है, श्रतएव आप ही बुद्धिमानों के द्वारा वन्दनीय हैं ।
ऐसा ही स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में दिखलाया है-
पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फल कुतः । बधमोक्षो व तेषां न येषां त्व नासि नायक ॥। ४० ।।
भावार्थ-- जिनके श्राप स्वामी नहीं हैं एकांत को ही मानते हैं उनके मत में पुण्य बन्ध नहीं हो सकती है । जब क्रिया नहीं हो सकती तब उसका फल परलोक व सुख व दुःख नहीं बन सकता है, न वहां कर्मों का बंध सिद्ध होगा न वहां मोक्ष होगा; क्योंकि सर्वथा नित्य मानने से वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही नहीं तव ये सब कार्य न बनेंगे । यदि सर्वथा नित्य मानेंगे तब भी कुछ कार्य न होगा । जो पाप करेगा वह तो नाश ही हो जायगा तब फल कौन भोगेगा ? इत्यादि ।
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प्रर्थात् जो अनेकान्त को न मानकर मात्र करने वाली व पाप बंध करानेवाली क्रिया
छन्द
बाह्य श्रांतरग हेतु पूर्णता लहाय है । कार्यसिद्धं तहां हाय द्रव्यशक्ति पाय है ॥ और भांति मोक्षमार्ग होय ना भवीनिकी । प्रापही सुवंदनीक हा गुणी ऋषीनको ॥६०॥