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स्वयंभू स्तोत्र टीका
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प्रर्थात् शब्दों में दोनों ही धर्मों को एक काल कहने की शक्ति नहीं है इस अपेक्षा से वस्तु प्रवक्तव्य भी है तथापि वस्तु में दोनों ही धर्म तो हैं। इसे फिर भी दृढ़ करने के लिये प्रवक्तव्य के तीन भेद करके समझाता है "स्यात् अस्ति अवक्तव्यं च" स्यात नास्ति प्रवक्तव्यं च" "स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यं च" यद्यपि एक समय में कहने की शक्ति न होने से वस्तु प्रवक्तव्य है तथापि अस्ति स्वभाव सहित जरूर है या नास्ति स्वरूप सहित जरूर है या अस्ति नास्ति स्वभाव सहित जरूर है। उसी को स्याद्वाद नय या सप्तभंगी नय कहते हैं । इससे नय एक एक धर्म के स्वरूप को भले प्रकार समर्थन कर देता है । नय वह द्वार मात्र है जिससे एक एक धर्म को भिन्न २ करके समझाया जा सके । शिष्य जव नयों के द्वारा समझ लेता है तब उसका ज्ञान भी प्रमारणरूप हो जाता है। वह अस्तित्व तथा नास्तित्व दोनों धर्मों को एक काल ही रखने वाला पदार्थ है, ऐसा हो यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है। पंचाध्यायी में कहा है
ज्ञान विशेपो नय इति ज्ञानविशेपः प्रमाण मिति नियमात् ।
उभयोरन्त दो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेदः ।। ६७६ ।। भावार्थ- नय भी ज्ञान विशेष है, प्रमाण भी ज्ञान विशेष है। दोनों में विषय विशेष की अपेक्षा से भेद है । वास्तव में ज्ञान की अपेक्षा से दोनों में कोई भेद नहीं है।
स यथा विषय विशेपो द्रव्य कांशो नयस्य योन्यतमः ।
सोप्यपरम्तदपर इह निखिल विषयः प्रमाण जातस्य ॥ ६८० । भावार्थ-प्रमाण और नय में विशेष भेद इस प्रकार है। द्रव्य के अनन्त गुणों में से कोई सा एक विवक्षित अंश नय का विषय है। वह अंश तथा और भी सब अंश अर्थात् अनन्त गुणात्मक समस्त ही वस्तु प्रमाण का विषय है । यह नय दृष्टान्त का समर्थन करनेवाला है। जैसा किसी ने कहा घट है तो यह समर्थन करता है कि अपने स्वरूप चतुष्टय से घट है। पर स्वरूप चतुष्टय से नहीं है।
छन्द मालिनी। है विधिमय वस्तू और प्रतिपैध रूपं, जो जाने यगवत् है प्रमाण स्या
कोई घर ममयं प्रन्य को गौण करता, नय ग्रंश प्रसाशी पृष्ट दृष्टान्त करता। उत्थानिका-ऐसा नय का स्वरूप जो पृष्टांत का समर्थकहो किसके मत में से कहते हैं