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[ ४८ ]. होता है, तब प्रकाश विस्ताररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीवका प्रकाश अनादिकालसे कर्मोंसे ढका हुआ है, पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ । शरीर-प्रमाण ही संकोचरूप और विस्ताररूप हुआ, इसलिये जीवके प्रदेशोंका प्रकाश संकोच विस्ताररूप शरीरनामकर्मसे' उत्पन्न हुआ है, इस कारण सूखी मिट्टी के बर्तनकी तरह कारण के अभावसे संकोच - विस्ताररूप नहीं होता, शरीर प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जबतक मिट्टीका बासन जलसे गीला रहता है, तबतक जलके सम्बन्धसे वह घट बढ़ जाता है, और जब जलका अभाव हुआ, तब बासन सूख जानेसे घटता बढ़ता नहीं है - जैसेका तैसा रहता है । उसी तरह इस जीवके जबतक नामकर्मका सम्बन्ध है, तबतक संसारअवस्थामें शरीरकी हानि - वृद्धि होतो है, उसकी हानि - वृद्धि से प्रदेश सिकुड़ते हैं और फैलते हैं । तथा सिद्ध-अवस्था में नामकर्मका अभाव हो जाता है, इस कारण शरीरके न होनेसे प्रदेशोंका संकोच विस्तार नहीं होता, सदा एकसे ही रहते हैं । जिस शरीर से मुक्त हुआ, उसी प्रमाण कुछ कम रहता है । दीपकका प्रकाश तो स्वभाव से उत्पन्न है, इससे आवरणसे आच्छादित हो जाता है । जब आवरण दूर हो जाता है, तब प्रकाश सहज ही विस्तरता है । यहां तात्पर्य है, कि जो शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव परमात्मा मुक्ति में तिष्ठ रहा है, वैसा ही शरीर में भी विराज रहा है । जब रागका अभाव होता है, उस काल में यह आत्मा परमात्माके समान है, वही उपादेय है ॥५४॥ अथाष्टकर्माष्टादशदोषरहितत्वापेक्षया शून्यो भवतीति न च केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
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चेति दर्शयति
विकम् बहुवि सुद्धहँ एक्कु विथ णवि अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि शुद्धानां एकोऽपि अस्ति नैव आगे आठ कर्म और अठारह दोषोंसे रहित हुआ विभाव-भावोंकर रहित होवेसे शून्य कहा जाता है, लेकिन केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा शून्य नहीं है, सदा पूर्ण ही है, ऐसा दिखलाते हैं - (येन ) जिस कारण (अष्टौ श्रपि ) आठों ही ( बहुविधानि कर्माणि) अनेक भेदोंवाले कर्म ( नवनव दोषा अपि) अठारह ही दोष इनमें से (1 श्रपि ) एक भी (शुद्धानां ) शुद्धात्माओंके (नैव अस्ति) नहीं है, ( तेन ) इसलिये (शून्योऽपि ) शून्य भी ( भण्यते ) कहा जाता है ।
(एक:
वणव दोस वि जेण । सुरागु वि बुच्चइ ते ।। ५५ ।। नवनव दोषा अपि येन । शून्योऽपि उच्यते तेन ॥५५॥