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काम क्रोधादिरूप हो गया है, तो भी परमभावके ग्राहक शुद्धनिश्चयनयकर अपने ज्ञानादि निजभावको छोड़कर काम क्रोधादिरूप नहीं होता, अर्थात्, निजभावरूप ही है । ये रागादि विभाव परिणाम उपाधिक हैं, परके सम्बन्धसे हैं, निजभाव नहीं हैं, इसलिये आत्मा कभी इन रागादिरूप नहीं होता, ऐसा योगोश्वर कहते हैं । यहां उपादेयरूप मोक्ष - सुख (अतीन्द्रिय सुख ) से तन्मय और काम-क्रोधादिकसे भिन्न जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है ।। ६७ ॥
अथ शुद्ध निश्चयेनोत्पत्तिं मरणं बन्धमोक्षौ न करोत्यात्मेति प्रतिपादयतिवि उत्पज्जइ वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ | जिउ परमत्यें जोइया जिणवरु एउं भणेइ ॥ ६८ ॥
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नापि उत्पद्यते नापि म्रियते बन्धं न मोक्षं करोति । जीवः परमार्थेन योगिन् जिनवर : एव भणति ॥ ६८ ॥ | आगे शुद्धनिश्चयनयकर आत्मा जन्म, मरण, बन्ध और मोक्षको नहीं करता
है, जैसा है वैसा ही है, ऐसा निरूपण करते हैं - ( योगिन् ) हे योगीश्वर, ( परमार्थेन) निश्चयनयकर विचारा जावे, तो (जीवः) यह जीव (नापि उत्पद्यते ) न तो उत्पन्न होता है, ( नापि म्रियते ) न मरता है (च) और (न बंधं मोक्षं) न बन्ध मोक्षको ( करोति ) करता है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनयसे बन्ध-मोक्षसे रहित है, ( एवं ) ऐसा ( जिनवर : ) जिनेन्द्रदेव ( भणति ) कहते हैं ।
भावार्थ-यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूतिके अभाव के होनेपर शुभ अशुभ उपयोगोंसे परिणमन करके जीवन, मरण, शुभ, अशुभ, कर्मबन्धको करता है, और शुद्धात्मानुभूतिके प्रगट होनेपर शुद्धोपयोगसे परिणत होकर मोक्षको करता है, तो भो शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्धद्रव्या थिकनयकर न बन्धका कर्ता है, और न मोक्षका कर्ता है | ऐसा कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया, कि हे प्रभो, शुद्ध द्रव्याथिक स्वरूप शुद्धनिश्चयनयकर मोक्षका भी कर्ता नहीं है, तो ऐसा समझना चाहिये, कि शुद्ध यकर मोक्ष ही नहीं है, जब मोक्ष नहीं, तब मोक्षके लिये यत्न करना वृथा है । उसका उत्तर कहते हैं - मोक्ष है, वह बन्धपूर्वक है, और बन्ध है, वह शुद्ध निश्रयनयकर होता ही नहीं, इस कारण बन्धके अभावरूप मोक्ष है, वह भी शुद्ध निश्चयनयकर नहीं है | जो शुद्धनिश्चयनय से बन्ध होता, तो हमेशा बन्धा ही रहता, कभी बन्धका अभाव न होता ।