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ऐसा ही कथन समयसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने किया है । " जो परसई" इत्यादिइसका अर्थ यह है, कि जो निकट संसारी जीव स्वसंवेदनज्ञानकर अपने आत्माको अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपने से अपने को देखता है, वह सब जैनशासनको देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है । कैसा वह आत्मा है ? रागादिक ज्ञानावरणादिकसे रहित है, अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान मार्गणा जीवसमास इत्यादि सव भेदोंसे रहित है । ऐसे आत्मा के स्वरूपको जो देखता है, जानता है, अनुभवता है, वह सब जिनशासनका मर्म जानने वाला है ||६||
अथैतदेव समर्थयति—
अप्प - सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु ।
दीस अप- सहावि लहु लोयालोउ असेसु ॥१००॥ आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां एष भवति विशेषः ।
दृश्यते आत्मस्वभावे लघु लोकालोकः अशेषः ।। १०० ।।
अब इसी बातका समर्थन ( दृढ़ ) करते हैं - ( श्रात्मस्वभावे ) आत्मा के स्वभाव में ( प्रतिष्ठितानां ) लीन हुए पुरुषोंके ( एष विशेषः भवति ) प्रत्यक्ष में तो यह विशेषता होती है, कि ( आत्मस्वभावे ) आत्मस्वभाव में उनको ( अशेष : लोकालोकः ) समस्त लोकालोक (लघु) शीघ्र ही ( दृश्यते) दीख जाता है । अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, "अप्पसहाव लहु" इसका अर्थ यह है, कि अपना स्वभाव शीघ्र दीख जाता है, और स्वभाव के देखने से समस्त लोक भी दीखता है । यहांपर भी विशेष करके पूर्व सूत्रकथित चारों तरहका व्याख्यान जानना चाहिये, क्योंकि यही व्याख्यान बड़े-बड़े आचार्योंने माना है ॥१००॥
अतोऽमेवार्थं दृष्टान्तदन्ताभ्यां समर्थयति-
अप्पु पयास अप्प परु जिम अंवरि रवि-राउ |
जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु सहाउ || १०१ ॥
आत्मा प्रकाशयति आत्मानं परं यथा अम्बरे रविरागः ।
योगिन् अत्र मा भ्रान्ति कुरु एप वस्तुस्वभावः ।। १०१ ।।
आगे इसी अर्थ को दृष्टातदान्ति से दृढ़ करते हैं - (यथा ) जैसे (अंबरे) आकाश में (रविरागः) सूर्यका प्रकाश अपनेको और परको प्रकाशित करता है, उसी तरह