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यहा सा
[ ६० ] यहां सारांश यह है, कि निश्चयनयकरके पांच प्रकारके ज्ञानोंसे अभिन्न अपने आत्माको जो ध्यानी जानता है, उसी आत्माको तू उपादेय जान । ऐसा ही सिद्धांतोंमें हरएक जगह कहा है-"आभिणि" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि मति श्रुत अवधि मन:पर्यय केवलज्ञान ये पांच प्रकारके सम्यग्जान एक आत्माके ही स्वरूप हैं, आत्माके विना ये ज्ञान नहीं हो सकते, वह आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर वह जीव निर्वाणको पाता है।
अथ
अप्पहं जे वि विभिराण वढ ते वि हवंति ण णाणु । ते तुहं तिगिण वि परिहरिवि शियमि अप्पु वियाणु ।।१०६॥ आत्मनः ये अपि विभिन्नाः वत्स तेऽपि भवन्ति न ज्ञानम् । तान् त्वं त्रीण्यपि परिहृत्य नियमेन आत्मानं विजानीहि ।।१०६॥
आगे परभावका निषेध करते हैं-(वत्स) हे शिष्य (आत्मनः) आत्मासे (ये अपि भिन्नाः ) जो जुदे भाव हैं, (तेऽपि) वे भी (ज्ञानं न भवंति) ज्ञान नहीं हैं, वे सब भाव ज्ञानसे रहित जड़रूप हैं, (तान ) उन (त्रीणि अपि ) धर्म अर्थ कामरूप तीनों भावोंको (परिहत्य ) छोड़कर (नियमेन) निश्चयसे (आत्मानं ) आत्माको (त्व) तू (विजानीहि) जान ।
भावार्थ-हे प्रभाकरभट्ट, मुनिरूप धर्म, अर्थरूप संसारके प्रयोजन, काम (विषयाभिलाष) ये तीनों ही आत्मासे भिन्न हैं, ज्ञानरूप नहीं हैं । निश्चयनयकरके सव तरफसे निर्मल केवलज्ञानस्वरूप परमात्मपदार्थसे भिन्न तीनों ही धर्म अर्थ काम पुरुषार्थोंको छोड़कर वीतरागस्वसंवेदनस्वरूप शुद्धात्मानुभवरूपज्ञानमें रहकर आत्माको जान ।।१०६॥
अप्पा णाणहं गम्मु पर गाणु वियाणइ जेण । तिगिण वि मिल्लिवि जाणि तुहूँ अप्पा णाणें तेण ॥१०७॥ आत्मा ज्ञानस्य गम्यः परः ज्ञानं विजानाति येन । त्रीण्यपि मुक्त्वा जानीहि त्वं आत्मानं ज्ञानेन तेन ।।१०७।।
आगे आत्माका स्वरूप दिखलाते हैं-(आत्मा) आत्मा (परं) नियमसे (ज्ञानस्य) ज्ञानके (गम्यः) गोचर है, (येन) क्योंकि (ज्ञान) ज्ञान ही (विजानाति) आत्मा