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[ ८६ ] भावार्थ-प्रभाकरभट्ट श्रीयोगीन्द्रदेवसे पूछता है, कि हे स्वामी, जिस वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकर क्षणमात्र में शुद्ध बुद्ध स्वभाव अपनी आत्मा जानी जाती है, वह ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालोंसे. कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक विभावोंके बढ़ानेवाले हैं । सारांश यह है, कि मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित तथा निज शुद्ध आत्मानुभवरूप जिस ज्ञानसे अन्तर्मुहूर्त में ही परमात्माका स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान उपादेय है । ऐसी प्रार्थना शिष्यने श्रीगुरूसे की ।।१०४॥
अथ ऊर्ध्वं ज्ञानचतुष्टयेन ज्ञानस्वरूपं प्रकाशयति
अप्पा णाणु मुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु । जीव-पएसहि तित्तिडउ णाणे गयण-पवाणु ।।१०५॥ आत्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानम् । जीवप्रदेशः तावन्मानं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ।।१०५।।
आगे श्रीगुरु चार दोहा-सूत्रोंसे ज्ञानका स्वरूप प्रकाशते हैं-श्रीगुरु कहते हैं, कि हे प्रभाकर भट्ट, (त्वं) तू (प्रात्मानं) आत्माको ही (ज्ञान) ज्ञान (मन्यस्व) जान, (यः) जो ज्ञानरूप आत्मा (आत्मानं) अपनेको (जीवप्रदेशः तावन्मानं) अपने प्रदेशोंसे लोक-प्रमाण (ज्ञानेन गगनप्रमाणं) ज्ञानसे व्यवहारनयकर आकाश-प्रमाण (जानाति) जानता है । अथवा यहां "देहसमु” ऐसा भी पाठ है, तब ऐसा समझना, कि निश्चयनयसे लोकप्रमाण है, तो भी व्यवहारनयसे संकोच विस्तार स्वभाव होनेसे शरीरप्रमाण है।
भावार्थ-निश्चयनयकर मति श्रत अवधि मनःपर्यय केवल इन पांच ज्ञानोंसे अभिन्न तथा व्यवहारनयसे ज्ञान की अपेक्षारूप देखने में नेत्रोंकी तरह लोक अलोकमें व्यापक है । अर्थात् जैसे आंखें रूपी पदार्थोंको देखती है, परन्तु उन स्वरूप नहीं होतीं, वैसे ही आत्मा यद्यपि लोक अलोकको जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है, ज्ञानकर ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चयसे प्रदेशोंकर लोक-प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी व्यवहारनयकर अपने देह-प्रमाण है, ऐसे आत्माको जो पुरुष आहार भय मैथुन परिग्रहरूप चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्पकी तरंगोंको छोड़कर जानता है, वही पुरुष ज्ञानसे अभिन्न होनेसे ज्ञान कहा जाता है । आत्मा और ज्ञान में भेद नहीं है, आत्मा ही ज्ञान है ।