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परमात्म प्रकाश.
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भावार्थ - जो कोई सब परिग्रहके त्यागी साधु परमात्मस्वभावका प्रकाशक . इस परमात्मप्रकाशनामा ग्रन्थको समस्त रागादि खोटे ध्यानरहित जो शुद्धभाव उससे निरन्तर विचारते हैं, वे निर्मोह परमात्मतत्त्वसे विपरीत जो मोहनामा कर्म उसकी समस्त प्रकृतियोंको मूलसे उखाड़ देते हैं, मिथ्यात्व रागादिकों को जीतकर निर्मोह निराकुल चिदानन्द स्वभाव जो परमात्मा उसको अच्छी तरह जानते हैं ॥ २०४॥
अथ
विभत्तिए जे मुखहिं इहु परमप्प- पयासु । लोयालोय-पयासयरु पावहिं ते विपयासु ॥ २०५ ॥
अन्यदपि भक्त्या ये जानन्ति इमं परमात्मप्रकाशम् । लोकालोकप्रकाशकरं प्राप्नुवन्ति तेऽपि प्रकाशम् || २०५||
आगे फिर भी परमात्मप्रकाश के अभ्यासका फल कहते हैं - ( श्रन्यदपि ) और भी कहते हैं, (ये) जो कोई भव्य जीव ( भक्त्या ) भक्ति से ( इमं परमात्मप्रकाशं ) इस परमात्मप्रकाश शास्त्रको ( जानन्ति ) पढ़ें, सुने, इसका अर्थ जानें, (तेऽपि ) वे भी ( लोकालोकप्रकाशकरं ) लोकालोकको प्रकाशनेवाले (प्रकाश) केवलज्ञान तथा उसके आधारभूत परमात्मतत्त्वको शीघ्र ही पा सकेंगे । अर्थात् परमात्मप्रकाश नाम परमात्मतत्त्वका भी है, और इस ग्रन्थका भी है, सो परमात्मप्रकाश ग्रन्थके पढ़नेवाले दोनों ही को पावेंगे । प्रकाश ऐसा केवलज्ञानका नाम है, उसका आधार जो शुद्ध परमात्मा अनन्त गुण पर्याय सहित तीनकालका जाननेवाला लोकालोकका प्रकाशक ऐसा मात्मद्रव्य उसे तुरन्त ही पावेंगे ॥२०५॥
अथ
जे परमप्प - पयासयहं अदि गाउ लयंति ।
तुइ मोहु तडत्ति तहं तिहुयण - गाह हवंति || २०६।।
ये परमात्मप्रकाशस्य अनुदिनं नाम गृह्णन्ति ।
त्रुटति मोहः झटिति तेषां त्रिभुवननाथा भवन्ति ॥ २०६ ॥
आगे फिर भी परमात्मप्रकाशके पढ़नेका फल कहते हैं - ( ये ) जो कोई भव्य
जीव ( परमात्मप्रकाशस्य) व्यवहारवयसे परमात्मा के प्रकाश करनेवाले इस ग्रन्थका