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श्री श्रादिनाथ स्तुति
उत्थानिका-मीमांसक सतधारी कोई शिष्य शंका करता है कि भगवान ऋषभदेव को प्रतीन्द्रिय ज्ञान नहीं हो सकता। जब वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते तब वे यथार्थ उपदेश कैसे कर सकते हैं ? इस शंका के समाधान में श्राचार्य कहते हैं
स विश्वचक्षुर्वृषभोचितः सतां समग्र विद्यात्मनपुनिरंजनः ।
पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवा दिशासनः ||५||
श्रन्वयार्थ -- ( सः ) वह ( नाभिनन्दनः ) नाभि राजा चौदहवें फुलकर के पुत्र (वृषभः) धर्म से शोभायमान ऐसे सार्थक नामधारी श्री वृषभदेव महाराज ( विश्वचक्षुः ) जो जगत के सर्व पदार्थों को एक साथ देखनेवाले केवलज्ञान रूपी नेत्र के धारी हैं, (सतां प्रचितः ) जो इन्द्र गणधरादि महान पुरुषों के द्वारा पूजित हैं, ( निरंजन: ) जो ज्ञानाधरणादि कर्म रूपी श्रृंजन से रहित पवित्र हैं, ( समग्र विद्यात्मवपु: ) जिनके श्रात्मा का शरीर सर्व जोवादि पदार्थों को जानने वाली विद्या रूप है । अर्थात् सर्व कर्मों के नाश होने से जिनका शरीर जड़-मई नहीं है किन्तु ज्ञान रूप है, (जिनः ) जो सर्व बाहरी व भीतरी ग्रात्मा के शत्रुनों को जीतने वाले हैं, ( जितक्षुल्लकवादिशासनः ) तथा जो अल्प-ज्ञानियों के कहे हुए मतों को परास्त करने वाले हैं सो भगवान ( मम चेतः पुनातु ) मेरी श्रात्मा को पवित्र करो अर्थात् सर्व दोषों से शुद्ध करो ।
· भाषार्थ -- श्री समन्तभद्राचार्य ने श्री ऋषभदेव की स्तुति करते हुए यह कहा है कि वह प्रभु धर्ममय हैं, केवलज्ञानी हैं, सर्व जड़ कर्म के सम्बन्ध रहित शुद्ध श्रात्मप्रदेशों के धारी ज्ञान शरीरी हैं, रागादि दोषों को जीतकर वीतरागी हैं व प्रयथार्थ मतों को, जिनको तुच्छ ज्ञानियों ने अपनी कल्पना से प्रगट किया है, साररहित बताने वाले हैं । और यह भावना भाई है कि उनके गुणों के स्तवन से मेरी श्रात्मा रागादि दोषों से रहित पवित्र हो जाये। इस बात से यह सूचित किया है कि ऐसा ही परमात्मा पूजने योग्य है जिसमें सर्वदा वीतराग व हितोपदेशीपने के गुण हों । तथा पूजक को कोई और बात को वाहन रखनी चाहिये -मात्र यही इच्छा रखनी चाहिये कि मेरे घ्रात्मा के प्रज्ञान व रागादि ate for दह पवित्र हो जावे अर्थात् स्वयं परमात्मा हो जावे । उच्च भावना का हो उच्च फल होता है । क्षरणभंगुर पदों की या नाशवन्त धन धान्यादि की चाह करके वीतराग सर्वज्ञ देव को भक्ति करना उल्टा कषाय को पुष्ट करना है । जगत में क्रोधादि कषाय ही प्रात्मा के वंरी हैं, ये हो संसार बढ़ाने वाले हैं । इसलिये इनके नाश का ही पवित्र