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परमात्मप्रकाश अचल हो परमसमाधिमें आरूढ होके निजस्वरूपका ध्यान करना । लेकिन जबतक तीन गप्तियां न हों, परमसमाधि न आवे, (हो सके) तबतक विषयकषायोंके हटानेके लिये परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहाने से मुख्यताकर अपना जीव ही को सम्वोधना। वह इस तरह है, कि परको उपदेश देते अपने को समझावे । जो मार्ग दूसरोंको छुड़ावे, वह आप कैसे करे। इससे मुख्य सम्बोधन अपना ही है । परजीवोंको ऐसा हो उपदेश है, जो यह बात मेरे मन में अच्छी नहीं लगती, तो लुमको भी भली नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो ।।३।।
अथ बोधार्थ शास्त्रं पठन्नपि यस्य विशुद्धात्मप्रतीतिलक्षणो बोधो नास्ति स मूढो भवतीति प्रतिपादयति
वोह-णिमित्ते सत्थु किल लोइ पडिज्जइ इत्थु । तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढ ण तत्थु ॥४॥ वोधनिमित्तेन शास्त्रं किल लोके पठ्यते अत्र ।
तेनापि बोधो न यस्य वरः स कि मूढो न तथ्यम् ।।४।।
आगे ज्ञान के लिए शास्त्रको पढ़ते हुए भी जिसके आत्म-ज्ञान नहीं, वह मूर्स है, ऐसा कथन करते हैं--(अत्र लोके) इस लोकमें (किल) नियमसे (बोधनिमित्तन) ज्ञानके निमित्त (शास्त्र) शास्त्र (पठ्यते) पढ़े जाते हैं, (तेनापि) परन्तु शास्त्रके पढ़नेसे भी (यस्य) जिसको (वरः बोधः न) उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, (स) वह (किं) क्या (मूढः न) मूर्ख नहीं है ? (तथ्यं) मूर्ख ही है इसमें सन्देह नहीं ।
भावार्थ-इस लोकमें यद्यपि लोक व्यवहारसे नवीन कविता का कर्ता कवि, प्राचीन काव्योंकी टीकाके कर्ताको गमक, जिससे वादमें कोई न जीत सके ऐसा वादित्व, और श्रोताओंके मनको अनुरागी करनेवाला शास्त्रका वक्ता होनेरूप वाग्मित्व, इत्यादि लक्षणोंवाला शास्त्रजनित ज्ञान होता है, तो भी निश्चयनयसे वीतरागस्व. संवेदनरूप ही ज्ञानकी अध्यात्म-शास्त्रों में प्रशंसा की गई है । इसलिये स्वसंवेदन ज्ञान विना शास्त्रोंके पढ़े हए भी मूर्ख हैं। और जो कोई परमात्मज्ञानके उत्पन्न करनेवाला छोटे घोड़े शास्त्रोंको भी जानकर वीतराग स्वसंवेदनशानकी भावना करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं।
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