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परमात्मप्रकाश आगें जो जीवोंके शत्रु मित्रादि भेद नहीं करता है, वह निश्चयकर जीवका लक्षण जानता है, ऐसा कहते हैं--(एते अशेषा अपि) ये सभी (जीवाः) जीव हैं, उनमें से (शत्रुरपि) कोई एक किसीका शत्रु भी है, (मित्रं अपि) मित्र भी है, (आत्मा) अपना है, और (परः) दूसरा है । ऐसा व्यवहारसे जानकर (यः) जो ज्ञानी (एकत्वं कृत्वा) निश्चयसे एकपना करके अर्थात् सबमें समदृष्टि रखकर (मनुते) समान मानता है, (सः) वही (आत्मानं) आत्माके स्वरूपको (जानाति) जानता है।
भावार्थ:-इन संसारी जीवोंमें शत्रु आदि अनेक भेद दीखते हैं, परन्तु जो ज्ञानी सबको एक दृष्टि से देखता है--समान जानता है । शत्रु, मित्र, जीवित, मरण, लाभ, अलाभ आदि सबोंमें समभावरूप जो वीतराग परमसामायिकचारित्र उसके प्रभावसे जो जीवोंको शुद्ध संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निजस्वरूपको जानता है। जो निजस्वरूप, वीतराग सहजानन्द एक स्वभाव तथा शत्रु मित्र आदि विकल्प-जालसे रहित है, ऐसे निजस्वरूपको समताभावके बिना नहीं जान सकता ।।१०४॥
अथ योऽसौ सर्वजीवान समानान्न मन्यते तस्य समभावो नास्तीत्यावेदयति
जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक-सहाव । तासु ण थकइ भाउ समु भव-सायरि जो गाव ॥१०५।। यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान् । तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौ: ।।१०।।
आगे जो सब जीवोंको समान नहीं मानता, उसके समभाव नहीं हो सकता, ऐसा कहते हैं--(जीव) हे जीव, (यः) जो (सकलानपि) सभी (जीवान्) जीवोका (एकस्वभावान्) एक स्वभाववाले (नैव मन्यते) नहीं जानता, (तस्य) उस अज्ञानाक (समः भावः) समभाव (न तिष्ठति) नहीं रहता, (यः) जो समभाव (भवसागर) संसार-समुद्रके तैरनेको (नौः) नावके समान है ।
भावार्थ-जो अज्ञानी सब जीवों को समान नहीं मानता, अर्थात् वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर सबको समान दृष्टि से नहीं देखता, सकल जायक परम निमल केवलज्ञानादि गुणोंकर निश्चयनयसे सब जीव एकसे हैं, ऐसी जिसके श्रद्धा ना है, उसके सम भाव नहीं उत्पन्न हो सकता । ऐसा निस्सन्देह जानो। कैसा है समभाय,