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अथ
सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ । जहि मइ तहिं गइ जीवह जि णियमें जेण हवेइ ॥१११॥ सः परः उच्यते लोकः परः यस्य मतिः तत्र वप्तति । यत्र मतिः तत्र गतिः जीवस्य एव नियमेन येन भवति ।।१११।।
आगे ऐसा कहते हैं, जिसका मन निज आत्मामें बस रहा है, वही ज्ञानी जीव परलोक है-(यस्य मतिः) जिस भव्यजीवकी बुद्धि (तत्र) उस निज आत्मस्वरूपमें (वसति) बस रही है, अर्थात् विषय-कषाय-विकल्प-जालके त्यागसे स्वसंवेदनज्ञानस्वरूपकर स्थिर हो रही है । (सः) वह पुरुष (परः) निश्चयकर (परः लोकः) उत्कृष्ट जन (उच्यते) कहा जाता है । अर्थात् जिसकी बुद्धि निजस्वरूपमें ठहर रही है, वह उत्तम जन है, (येन) क्योंकि (यत्र मतिः) जैसी बुद्धि होती है, (तत्र) वैसी (एव) ही (जीवस्य) जीवकी (गतिः) गति (नियमेन) निश्चयकर (भवति) होती है, ऐसा जिनवरदेवने कहा है । अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें जिस जीवकी बुद्धि होवे, उसको वैसी ही गति होती है, जिन जीवोंका मन निज-वस्तू में है, उनको निज-पदको प्राप्ति होती है, इसमें सन्देह नहीं है ।
भावार्थ-जो आर्तध्यान रौद्रध्यानकी आधीनतासे अपने शुद्धात्मकी भावनासे रहित हुआ रागादिक परभावोंस्वरूप परिणमन करता है, तो वह दीर्घसंसारी होता है, और जो निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वमें भावना करता है तो वह मोक्ष पाता है । ऐसा जानकर सब रागादि विकल्पोंको त्यागकर उस परमात्मतत्त्वमें ही भावना करनी चाहिये ।।१११॥ . अथ
जहिं मइ तहिं गइ जीव तुहूँ मरणु वि जेण लहेहि । तें परवंभु मुएवि मई मा पर-दव्वि करेहि ।।११२।। यत्र मतिः तत्र गतिः जीव त्वं मरणमपि येन लभसे । .
तेन परब्रह्म मुक्त्वा मति मा परद्रव्ये कार्पोः ।।११२।।
आगे फिर भी इसी बातको दृढ़ करते हैं-(जोब) हे जीव (यत्र मतिः) जहाँ तेरी बुद्धि है, (तत्र गतिः) वहीं पर गति है, उसको (येन) जिस कारणसे (त्वं मृत्वा)