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[ ८८ ] अप्पु वि पर वि वियाणइ जें अप्पें मुणिएण । सो जिय-अप्पा जाणि तुहूं जोइय णाण-बलेण ॥१०॥ आत्मापि परः अपि विज्ञायते येन आत्मना विज्ञातेन । तं निजात्मानं जानीहि त्वं योगिन् ज्ञानबलेन ॥१०३।।
आगे जिस आत्माके जाननेसे निज और पर सब पदार्थ जान जाते हैं, उसी आत्माको तु स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे जान, ऐसा कहते हैं-(येन आत्मना विज्ञातेन) जिस आत्माको जाननेसे (आत्मा अपि) आप और (परः अपि) पर सब पदार्थ (विज्ञायते) जाने जाते हैं, (तं निजात्मानं) उस अपने आत्माको (योगिन्) हे योगी (त्वं) तू (ज्ञानबलेन) आत्मज्ञानके बलसे (जानीहि) जान ।
भावार्थ-यहांपर यह है, कि रागादि विकल्प-जालसे रहित सदा आनन्द स्वभाव जो निज आत्मा उसके जाननेसे निज और पर सब जाने जाते हैं, इसलिये हे योगी, हे ध्यानी, तु उस आत्माको वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे उत्पन्न परमानन्द सुखरसके आस्वादसे जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर । स्वसंवेदन ज्ञान (आपकर अपनेको अनुभव करना) ही सार है। ऐसा उपदेश श्रीयोगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टको दिया ।।१०३।।
अतः कारणात् ज्ञानं पृच्छति
णाणु पयासहि परमु महु कि अगणें बहुएण । जेण नियप्पा जाणियइ सामिय एक-खणेण ।।१०४॥ ज्ञानं प्रकाशय परमं मम किं अन्येन बहुना ।
येन निजात्मा ज्ञायते स्वामिन् एकक्षणेन ।।१०४।।
अब प्रभाकरभट्ट महान विनयसे ज्ञानका स्वरूप पूछता है-(स्वामिन्) है भगवान्, (येन ज्ञानेन) जिस ज्ञानसे (एक क्षणेन) क्षणभरमें (निजात्मा) अपनी आत्मा (ज्ञायते) जानी जाती है, वह (परमं ज्ञानं) परम ज्ञान (मम) मेरे (प्रकाशय) प्रकाशित करो, (अन्येन वहना) और बहत विकल्प-जालोंसे (किम) क्या फायदा ? कुछ भी नहीं।