SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६] ऐसा ही कथन समयसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने किया है । " जो परसई" इत्यादिइसका अर्थ यह है, कि जो निकट संसारी जीव स्वसंवेदनज्ञानकर अपने आत्माको अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपने से अपने को देखता है, वह सब जैनशासनको देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है । कैसा वह आत्मा है ? रागादिक ज्ञानावरणादिकसे रहित है, अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान मार्गणा जीवसमास इत्यादि सव भेदोंसे रहित है । ऐसे आत्मा के स्वरूपको जो देखता है, जानता है, अनुभवता है, वह सब जिनशासनका मर्म जानने वाला है ||६|| अथैतदेव समर्थयति— अप्प - सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु । दीस अप- सहावि लहु लोयालोउ असेसु ॥१००॥ आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां एष भवति विशेषः । दृश्यते आत्मस्वभावे लघु लोकालोकः अशेषः ।। १०० ।। अब इसी बातका समर्थन ( दृढ़ ) करते हैं - ( श्रात्मस्वभावे ) आत्मा के स्वभाव में ( प्रतिष्ठितानां ) लीन हुए पुरुषोंके ( एष विशेषः भवति ) प्रत्यक्ष में तो यह विशेषता होती है, कि ( आत्मस्वभावे ) आत्मस्वभाव में उनको ( अशेष : लोकालोकः ) समस्त लोकालोक (लघु) शीघ्र ही ( दृश्यते) दीख जाता है । अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, "अप्पसहाव लहु" इसका अर्थ यह है, कि अपना स्वभाव शीघ्र दीख जाता है, और स्वभाव के देखने से समस्त लोक भी दीखता है । यहांपर भी विशेष करके पूर्व सूत्रकथित चारों तरहका व्याख्यान जानना चाहिये, क्योंकि यही व्याख्यान बड़े-बड़े आचार्योंने माना है ॥१००॥ अतोऽमेवार्थं दृष्टान्तदन्ताभ्यां समर्थयति- अप्पु पयास अप्प परु जिम अंवरि रवि-राउ | जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु सहाउ || १०१ ॥ आत्मा प्रकाशयति आत्मानं परं यथा अम्बरे रविरागः । योगिन् अत्र मा भ्रान्ति कुरु एप वस्तुस्वभावः ।। १०१ ।। आगे इसी अर्थ को दृष्टातदान्ति से दृढ़ करते हैं - (यथा ) जैसे (अंबरे) आकाश में (रविरागः) सूर्यका प्रकाश अपनेको और परको प्रकाशित करता है, उसी तरह
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy