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व्यथात्मनि ज्ञाते सर्च ज्ञातं भवतीति दर्शयति
जोइये अप्पें जाणिए जंगु जाणियउ हवेइ । अहं केरइ भावडइ बिंविउ जेण वसेइ ॥६६॥
योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति ।
आत्मनः सम्बन्धिनिर्भावे बिम्बितं येन वसति ||६||
आगे जिन भव्यजीवोंने आत्मा जान लिया, उन्होंने सब जाना ऐसा दिखलाते - ( योगिन् ) हे योगी ( श्रात्मना ज्ञातेन ) एक अपने आत्मा के जाननेसे ( जगत् ज्ञातं भवति) यह तीन लोक जाना जाता है ( येन ) क्योंकि ( आत्मनः संबंधिनि भावे ) आत्माके भावरूप केवलज्ञान में (बिम्बितं) यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ ( वसति ) बस रहा है ।
भावार्थ - वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञान से शुद्धात्मतत्त्व के जाननेपर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है । क्योंकि जैसे रामचन्द्र पाण्डव भरत सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराजकी दीक्षा लेकर फिर द्वादशांगको पढ़कर द्वादशांग पढ़ने का फल निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे । इसलिये वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर अपने आत्माका जानना ही सार है, आत्माके जानने से सबका जानपना सफल होता है, इस कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना । अथवा निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न हुआ जो परमानन्द सुखरस उसके आस्वाद होनेपर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरूप जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसीलिये आत्माके ( अपने ) जानने से सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया, उसने अपने से भिन्न सब पदार्थ जाते । अथवा आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानसे सब लोकालोकको जानता है, इसलिये आत्मा के जानने से सब जाना गया । अथवा वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न ( प्रगट ) करके जैसे दर्पण में घटपटादि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पण में सव लोक अलोक भासते हैं । इससे यह बात निश्चय हुई, कि आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है ।
यहां पर सारांश यह हुआ, कि इन चारों व्याख्यानोंका रहस्य जानकर बाह्य अभ्यन्तर सब परिग्रह छोड़कर सब तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये ।