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________________ [ ६७ ] ( आत्मा ) आत्मा ( श्रात्मानं ) अपनेको (परं) पर पदार्थों को ( प्रकाशयति ) प्रकाशता है, सो ( योगिन् ) हे योगी ( श्रत्र) इसमें (भ्रांति मा कुरु ) भ्रम मत कर । ( एष वस्तुस्वभाव : ) ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है । भावार्थ - जैसे मेघ रहित आकाश में सूर्यका प्रकाश अपनेको और परको प्रकाशता है, उसी प्रकार वीतरागनिर्विकल्प समाधिरूप कारणसमयसार में लीन होकर मोहरूप मेघ समूहका नाश करके यह आत्मा मुनि अवस्था में वीतराग स्वसंवेदनज्ञान. क़र अपनेको और परको कुछ प्रकाशित करता है, पीछे अरहन्त अवस्थारूप कार्य समयसार स्वरूप परिणमन करके केवलज्ञानसे निज और परको सब द्रव्य क्षेत्र काल भावसे प्रकाशता है । यह आत्म-वस्तुका स्वभाव है, इसमें संदेह नहीं समझना । इस जगह ऐसा सारांश है, कि जो केवलज्ञान केवलदर्शन अनन्त सुख अनन्तवीर्यरूप कार्यसमयसार है, वही आराधने योग्य है ।। १०१ ।। अथास्मिन्नेवार्थे पुनरपि व्यक्त्यर्थं दृष्टान्तमाह तारायणु जलि बिंबियउ गिम्मलि दीसह जेम | अप्पर णिम्मलि बिंबियड लोयालोड वि तेम ॥ १०२ ॥ तारागणः जले बिम्बितः निर्मले दृश्यते यथा । आत्मनि निर्मले बिम्बितं लोकालोकमपि तथा ॥ १०२ ।। आगे इसी अर्थको फिर भी खुलासा करनेके लिये दृष्टान्त देकर कहते हैं( यथा ) जैसे ( तारागण:) ताराओं का समूह ( निर्मले जले) निर्मल जल में (विम्बितः ) प्रतिविम्बत हुआ ( दृश्यते) प्रत्यक्ष दीखता है, (तथा) उसी तरह ( निर्मले आत्मनि ) मिध्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित स्वच्छ आत्मायें (लोकालोकं अपि ) समस्त लोक अलोक भासते हैं । कथयति भावार्थ - इसका विशेष व्याख्यान जो पहले कहा था, वही यहां पर जानना अर्थात् जो सबका ज्ञाता दृष्टा आत्मा है, वही उपादेय है । यह सूत्र भी पहले कथनको दृढ़ करनेवाला है ।। १०२॥ अथात्मा परश्व येनात्मना ज्ञानेन ज्ञायते तमात्मानं स्वसंवेदनज्ञानवलेन जानीहीति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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