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[ ७० ] पटकते (डालते) हैं। कैसे हैं, वे कर्म (दृढघनचिक्कणानि) बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करनेको अशक्य हैं, इसलिये चिकने हैं, (गुरुकाणि) भारी हैं, (वनसमानि) और वपाके समान अभेद्य हैं।
भावार्थ-यह जीव एक समय में लोकालोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञान आदिका अनन्त गुणोंसे बुद्धिमान चतुर है, तो भी इस जीवको वे संसारके कारण कर्म ज्ञानादि गुणोंका आच्छादन करके अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्ग से विपरीत खोठे मागमें डालते हैं, अर्थात् मोक्ष-मार्गसे भुलाकर भव-वनमें भटकाते हैं। यहां यह अभिप्राय है, कि संसारके कारण जो कर्म और उनके कारण मिथ्यात्व रागादि परिणाम हैं, वे सब हेय हैं, तथा अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्ग है, वह उपादेय है ।।७८||
अथ मिथ्यापरिणत्या जीयो विपरीतं तत्त्वं जानातीति निरूपयतिजिउ मिच्छत्ते परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ । कम्म-विणि स्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेई ॥७६।। जीवः मिथ्यात्वेन परिणतः विपरीतं तत्त्वं मनुते । कर्मविनिर्मितान् भावान् तान् आत्मानं भणति ।।७।।
आगे मिथ्यात्व परिणति से यह जोव तत्त्वको यथार्थ नहीं जानता, विपरोन जानता है, ऐसा कहते हैं- (जीवः) यह जीव (मिथ्यात्वेन परिणतः) अतत्त्ववद्वान रूप परिणत हुआ, (तत्त्वं) आत्माको आदि लेकर तत्वोंके स्वरूपको (विपरीत) अन्य का अन्य (मनुते) श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता। वस्तुका स्वरूप तो जमा है, वैसा ही है, तो भी वह मिथ्यात्वी जीव वस्तुके स्वरूपको विपरीत जानता है, अपना जो शुद्ध ज्ञानादि सहित स्वरुप है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है । उससे लगा करता है ? ( कर्मविनिमितान भावान ) कर्मोकर रचे गये जो शरीरादि परभाव हैं. (तान) उनको (आत्मानं) अपने (भगति) कहता है, अर्थात् भेद विज्ञान के अभाव गोरस, श्याम, स्थूल, कृष्ण, इत्यादि वर्मजनित देहके स्वरूपको अपना जानता है, इसी से गंमार भ्रमण करता है।
भावार्य-यहीं पर कमाने उपार्जन किये भावों में भिन्न जो शुद्ध आमा है, उसने जिम समय रागादि दूर होते हैं, उस समय उपादेय है, क्योंकि तभी शुद्ध आमा का ज्ञान होता है ॥६॥