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[ ७१ ] अथानन्तरं तत्पूर्वोक्तकमजनितभावान् येन मिथ्यापरिणामेन कृत्वा बहिरात्मा आत्मनि योजयति तं परिणाम सूत्रपञ्चकेन विवृणोति
हउं गोरउ हउं सामलउ हडं जि विभिण्णउ वण्णु । हउं तणु-अंगडं थूलु हडं एहउं मूढउ मण्णु ।।८०॥ अहं गौरः अहं श्यामः अहमेव विभिन्नः वर्णः । अहं तन्वङ्गः स्थूल: अहं एतं मूढं मन्यस्व ।।८०॥
इसके बाद उन पूर्व कथित कर्मजनित भावोंको जिस मिथ्यात्व परिणामसे बहिरात्मा अपनेको मानता है, और वे अपने हैं नहीं, ऐसे परिणामोंको पांच दोहासूत्रोंमें कहते हैं-(अहं) मैं (गौरः) गोरा हूँ, (अहं) मैं (श्यामः) काला हूँ, (अहमेव) मैं ही (विभिन्नः वर्णः) अनेक वर्णवाला हूँ, (अहं) मैं (तन्वंगः) कृश (पतले) शरीरवाला हूँ, (अहं) मैं (स्थूलः) मोटा हूँ. (एतं) इसप्रकार मिथ्यात्व परिणामकर परिणत मिथ्यादृष्टि जीवको तू (मूढं) मूढ (मन्यस्व) मान ।
. भावार्थ-यह है, कि निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न जो कर्मजनित गौर स्थूलादि भाव हैं, वे सर्वथा त्याज्य हैं, और सर्वप्रकार आराधने योग्य वीतराग नित्यानंद स्वभाव जो शुद्ध जीव है, वह इनसे भिन्न है, तो भी पुरुष विषय कषायोंके आधीन होकर शरीरके भावोंको अपने जानता है, वह अपनी शुद्धात्मानुभूतिसे रहित हुआ मूढात्मा है ॥८॥
अथहउं वरु बंभणु वइसु हउं हउं खत्तिउ हडं सेसु । पुरिसु णउंसर इथि हउं मण्णइ मूदु विसेसु ।।८१॥ अहं वरः ब्राह्मणः वैश्यः अहं अहं क्षत्रियः अहं शेषः ।
पुरुषः नपुंसकः स्त्री अहं मन्यते मूढः विशेषम् ।।१।। .. आगे फिर भी मिथ्यादृष्टिके लक्षण कहते हैं-(मूढः) मिथ्यादृष्टि अपनेको (विशेषं मनुते) ऐसा विशेष मानता है, कि (अहं) मैं (वरः ब्राह्मणः) सबमें श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, (अहं) मैं (वैश्यः) वणिक् हूँ, (अहं ) मैं (क्षत्रियः) क्षत्री हूँ, (अहं) मैं (शेषः) इनके सिवाय शूद्र हूँ; (अहं) मैं (पुरुषः नपुंसकः स्त्रो) पुरुष हूँ, और स्त्री हूँ।