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- बहुत द्रव्योंसे बनाया गया जो पीनेका रस वह यद्यपि अनेक रसरूप है, तो भी अभेदनयकर एक पानवस्तु कही जाती है, उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है । यही अभेदरत्नत्रयका स्वरूप जैनसिद्धान्तोंमें हरएक जगह कहा है-"दर्शनमित्यादि" इसका अर्थ ऐसा है, कि आत्माका निश्चय वह सम्यग्दर्शन है, आत्माका जानना वह सम्यग्ज्ञान है, और आत्मामें निश्चल होना वह सम्यक्चारित्र है, यह निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षका कारण है, इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता ।।६६।।
अथ निर्मलमान्मानं ध्यायस्व येन ध्यातेनान्तर्मुहूर्तेनैव मोक्षपदं लभ्यत इति निरूपयति
अप्पा झायहि णिस्मलउ किं बहुए अण्णेण । जो भायंतह परम-पउ लब्सइ एक-खणेण ।।१७।।
आत्मानं ध्यायस्व निर्मलं कि बहुना अन्येन । . यं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ।।६७।।
मागे ऐसा कहते हैं, कि जो निर्मल आत्माको ही ध्यावो, जिसके ध्यान करनेसे अन्तर्मुहूर्त में (तात्काल) मोक्षपदकी प्राप्ति हो-हे योगी तू (निर्मलं आत्मानं) निर्मल आत्माका ही (ध्यायस्व) ध्यानकर, (अन्येन बहुना किं) और बहुत पदार्थोसे क्या । देश काल पदार्थ आत्मासे भिन्न हैं, उनसे कुछ प्रयोजन नहीं है, रागादि-विकल्पजालके समूहों के प्रपंच से क्या फायदा, एक निज स्वरूपको ध्यावो, (पं) जिस पर. मात्माके (ध्यायमानानां) ध्यान करनेवालोंको (एकक्षणेन) क्षणमात्रमें (परमपदं) मोक्षपद (लभ्यते) मिलता है । .. भावार्थ-सब शुभाशुभ संकल्प विकल्प रहित निजशुद्ध आत्मस्वरूपके ध्यान करनेसे शीघ्र हो मोक्ष मिलता है, इसलिये वही हमेशा ध्यान करने योग्य है । ऐसा ही बृहदाराधना-शास्त्र में कहा है । सोलह तीर्थङ्करोंके एक ही समय तीर्थरोंके उत्पत्तिके दिन पहले चारित्र ज्ञानकी सिद्धि हुई, फिर अन्तर्मुहूर्तमें मोक्ष हो गया । यहाँपर शिष्य प्रश्न करता है, कि यदि परमात्माके ध्यानसे अन्तमुहूर्त में मोक्ष होता है, तो इस समय ध्यान करनेवाले हम लोगोंको क्यों नहीं होता ?