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अथ
अप्पा गुरु विसिस्सु वि वि सामिउ वि भिच्चु । सूरउ कायरु होइ वि वि उत्तम वि खिच्चु || || आत्मा गुरुः नैव शिष्यः नैव नैव स्वामी नैव भृत्यः ।
शूरः कातरः भवति नैव नैव उत्तमः नैव नीचः ॥८६॥
आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं है - ( आत्मा ) आत्मा (गुरुः नैव) गुरु नहीं है, ( शिष्य नैव ) शिष्य भी नहीं है, ( स्वामी नैव) स्वामी भी नहीं है, (भृत्यः नैव ) नौकर नहीं है, (शूरः कातरः नैव ) शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, ( उत्तमः नैव) उच्चकुली नहीं है, (नीचः नैव भवति) और नीचकुली भी नहीं है ।
भावार्थ - ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबन्ध यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके स्वरूप हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयसे शुद्ध आत्मासे जुदे हैं, आत्माके नहीं हैं, त्यागने योग्य हैं, इन भेदोंको वीतराग परमानन्द निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव अपने समझता है, और इन्हीं भेदों को वीतराग निर्विकल्पसमाधि में रहता हुआ अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव पर रूप ( दूसरे ) जानता है ||८||
अथ
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अप्पा मासु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ । अपारउ कहिं विवि पाणिउ जाणइ जोइ ॥ ६०॥
आत्मा मनुष्यः देवः नापि आत्मा तिर्यग् न भवति ।
आत्मा नारक: क्वापि नैव ज्ञानी जानाति योगी ||80||
आगे आत्माका स्वरूप कहते हैं - ( आत्मा ) जीव पदार्थ ( मनुष्यः देवः नापि ) न तो मनुष्य है, न तो देव है, (आत्मा) आत्मा ( तिर्यक् न भवति) तिर्यंच पशु भी नहीं है, ( आत्मा ) आत्मा (नारकः) नारकी भी ( क्वापि नैव) कभी नहीं, अर्थात् किसी प्रकार भी पररूप नहीं है, परन्तु (ज्ञानी) ज्ञानस्वरूप है, उसको (योगी) मुनिराज तीन गुप्तिके धारक और निर्विकल्पसमाधिमें लीन हुए ( जानाति ) जानते हैं ।
भावार्थ - निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव जो परमात्मतत्व उसकी भावनासे उलटे राग-द्वेषादि विभाव-परिणामोंसे उपार्जन किये जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्यादि विभाव- पर्यायों को भेदाभेदस्वरूप रत्नत्रय की भावनासे रहित हुआ