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भावार्थ -- व्यवहारनयंकर यद्यपि पुण्य पापादि आत्मासे अभिन्न हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर भिन्न हैं, और त्यागने योग्य हैं, उन परभावोंको मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा अपने जानता है, और उन्हींको पुण्य पापादि समस्त संकल्प विकल्परहित निज शुद्धात्म द्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय - स्वरूप परमसमाधि में निष्ठता सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है ||२||
एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये मिथ्यादृष्टिभावनाविपरीतेन सम्यग्दृष्टिभावना स्थितेन सूत्राष्टकं समाप्तम् ।
अथानन्तरं सामान्य भेदभावना मुख्यत्वेन 'अप्पा संजमु' इत्यादि प्रक्षेपकान् विहाकत्रिंशत्त्रपर्यन्तमुपसंहाररूपा चूलिका कथ्यते । तद्यथा
यदि पुण्यपापादिरूपः परमात्मा न भवति तर्हि कीदृशो भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तर
माह -
अप्पा संजम सीलु त अपसगुणा |
अप्पा सासय- मोक्ख-पड जाणंतर अप्पाणु ॥ ६३ ॥
आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा दर्शनं ज्ञानम् ।
आत्मा शाश्वतमोक्षपदं जानन् आत्मानम् ||१३||
ऐसे बहिरात्मा अन्तरात्मा परमात्मारूप तीन प्रकारके आत्माका जिसमें . कथन है, ऐसे पहले अधिकार में मिथ्यादृष्टिकी भावनासे रहित जो सम्यग्दृष्टिकी भावना उसकी मुख्यतासे आठ दोहा-सूत्र कहे । आगे भेदविज्ञानकी मुख्यतासे "अप्पा संजमु" इत्यादि इकतीस दोहापर्यन्त क्षेपक सूत्रों को छोड़कर पहला अधिकार पूर्ण करते हुए व्याख्यान करते हैं, उसमें भी जो शिष्यने प्रश्न किया, कि यदि पुण्य पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान करते हैं - ( आत्मा ) निज गुणपर्यायका धारक ज्ञानस्वरूप चिदानन्द ही ( संयमः ) संयम है, ( शीलं तप. ) शील है, तप है, (आत्मा) आत्मा (दर्शनं ज्ञानं ) दर्शनज्ञान है, और (आत्मानं जानन् ) अपनेको जानता अनुभवता हुआ (आत्मा) आत्मा (शाश्वतमोक्षपदं) अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है । इसी कथनको विशेषताकर कहते हैं ।
भावार्थ -- पांच इन्द्रियां और मनका रोकना व छह कायके जीवोंकी दयास्वरूप ऐसे इन्द्रियसंयम तथा प्राणसंयम इन दोनोंके वलसे साध्य-साधक भावकर